चंद्रमा के प्रकाश में स्वास्थ्य और सुख
चेतनादित्य आलोक
सनातन धर्म में पूर्णिमा या पूर्णमासी के व्रत का बड़ा महत्व है, क्योंकि पूर्ण चंद्रमा को ‘अमृत का स्रोत’ माना गया है। वैसे तो प्रत्येक माह की पूर्णिमा का अपना अलग महत्व होता है, लेकिन कुछ विशेष पूर्णिमा तिथियां अत्यंत ही श्रेष्ठ मानी जाती हैं। आश्विन माह की पूर्णिमा उन्हीं में से एक है, जिसे ‘शरद पूर्णिमा’ कहा जाता है। शरद पूर्णिमा को ‘कौमुदी व्रत’, ‘कोजागरी पूर्णिमा’ एवं ‘रास पूर्णिमा’ के नाम से भी जाना जाता है।
मान्यता है कि सभी पूर्णिमा तिथियों में सिर्फ शरद पूर्णिमा के दिन ही चंद्रमा अपनी सभी सोलह कलाओं से परिपूर्ण यानी समग्रता लिए होता है। शास्त्रों में वर्णन है कि शरद पूर्णिमा का पूर्णावतार योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से भी गहरा संबंध है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कुछ गोप कुमारियों ने यमुना नदी में ‘कार्तिक स्नान’ करते समय भगवान श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने की कामना से देवी का पूजन किया था। उसके बाद ही उन कुमारियों की कामना का स्मरण करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने शरद पूर्णिमा की शुभ रात्रि में अपनी कल्याणकारी मुरली से सुमधुर तान छेड़ी थी। तत्पश्चात उन्होंने यमुना नदी के तट पर गोपियों के संग ‘महारास’ रचाकर उनकी कामनाएं पूर्ण की थीं। इसीलिए शरद पूर्णिमा को ‘रास पूर्णिमा’ तथा ‘रासोत्सव का दिन’ भी कहा जाता है।
वैसे तो पूर्णिमा का व्रत प्रायः सभी के लिए कल्याणकारी होता है, परंतु विवाहोपरांत यानी नए-नवेले जोड़ों के लिए यह विशेष महत्व रखता है। शास्त्रीय नियमानुसार पूर्णिमा के व्रत की शुरुआत शरद पूर्णिमा के व्रत से ही करनी चाहिए। शरद पूर्णिमा का महत्व इसलिए भी विशेष है, क्योंकि शरद पूर्णिमा ही वह तिथि है, जिससे हिन्दू संस्कृति में स्नान और व्रत का माहात्म्य दोबारा प्रारम्भ होता है। कार्तिक का व्रत भी शरद पूर्णिमा से ही प्रारम्भ होता है। सामान्यतः प्रत्येक पूर्णिमा को व्रत करने वाले लोग शरद पूर्णिमा को भी चंद्रमा का पूजन करके ही भोजन करते हैं। इस अवसर पर भगवान शिव, माता पार्वती एवं कार्तिकेय जी की भी पूजा की जाती है। यही पूर्णिमा कार्तिक स्नान के साथ, राधा-दामोदर पूजन व्रत धारण करने का भी दिन है। शरद पूर्णिमा को माताएं अपनी संतान की मंगल कामना से देवी-देवताओं का पूजन करती हैं। वैसे शरद पूर्णिमा की तिथि माता लक्ष्मी को समर्पित होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि को रात के समय माता लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करती हैं और अपने भक्तों को आशीर्वाद देकर उनकी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं। इसलिए इस दिन विधि-विधानपूर्वक भगवान श्रीहरि विष्णु एवं माता लक्ष्मी की पूजा करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और व्यक्ति को धन, वैभव, सुख-समृद्धि आदि का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
हिंदू संस्कृति में शरद पूर्णिमा का महत्व इसलिए भी सर्वाधिक है, क्योंकि सनातन धर्म में इस तिथि को सोलहों कलाओं से परिपूर्ण चंद्रमा से निकलने वाली किरणें अमृत के समान पवित्र मानी जाती हैं। यही कारण है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि में दूध में चावल की खीर बनाकर रात भर चंद्रमा के धवल पवित्र प्रकाश में रखा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा की पवित्र किरणों के संपर्क में आने से खीर अमृतमय-प्रसाद बन जाती है। इस प्रकार चंद्रमा की अमृतमयी किरणों से सिक्त खीर-प्रसाद का सेवन करने से मनुष्य की कई प्रकार की बीमारियां नष्ट हो जाती हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी शरद पूर्णिमा अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि इस तिथि को चंद्रमा पृथ्वी के अत्यंत समीप आ जाता है और संपूर्ण पृथ्वी शीतल एवं पवित्र चांदनी में नहाई हुई प्रतीत होती है। इसी दिन से शरद ऋतु की शुरुआत यानी सर्दियों का आगमन भी हो जाता है। इस दिन से मंदिरों में विशेष सेवा, पूजन-आराधन आदि की भी पुनः शुरुआत हो जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शरद पूर्णिमा को चंद्रमा की किरणों में औषधीय गुणों के मौजूद रहने के कारण रात्रि में खुले आसमान के नीचे भ्रमण करना अत्यंत स्वास्थ्यकर होता है।
शरद पूर्णिमा के दिन सुबह उठकर पवित्र जल से स्नान करना चाहिए। उजले स्वच्छ वस्त्र धारण करने के बाद ईष्टदेव की पूजा-आराधना का विधान है। रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देने से व्यक्ति समस्त दोषों से मुक्त हो जाता है। गाय के दूध में बनी घी मिश्रित खीर अलग-अलग पात्रों में भरकर चन्द्रमा की रोशनी में एक प्रहर यानी तीन घंटे तक रखने के बाद उसे भगवान श्रीहरि विष्णु एवं माता लक्ष्मी को अर्पित कर मांगलिक गीत गाते हुए रात्रि जागरण करना चाहिए। दूसरे दिन सुबह भगवान श्रीविष्णु एवं माता लक्ष्मी की पूजा करके खीर का प्रसाद वितरित कर स्वयं भी ग्रहण करना चाहिए। व्रत के दौरान फलाहार अथवा सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए।