नफरती बोल
यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि पहलगाम आतंकी हमले के बाद देश की बहादुर सेना ने जब पाक को सबक सिखा, देश को गौरव का अहसास कराया तब नफरती ट्रोल सेना, नीचता की सीमा तक गिरती नजर आई। जिसके विरोध में देश में तीखे गुस्से की लहर देखी गयी। इस बिगड़ैल ट्रोल सेना ने ऑनलाइन गाली-गलौज करने में किसी को भी नहीं बख्शा। यहां तक कि सादगी के व्यक्तित्व व गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति वाले विदेश सचिव विक्रम मिसरी तक को नहीं छोड़ा। ओलंपिक चैंपियन नीरज चोपड़ा भी निशाने पर आए। यहां तक कि पहलगाम हमले में विधवा हुई हिमांशी नरवाल को भी नहीं बख्शा गया। इसकी वजह यह थी कि उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखने और पहलगाम की घटना के बाद कश्मीरियों को निशाने पर न लेने का आह्वान किया था। निश्चित रूप से यह देश में सामाजिक समरसता के लिये वक्त की आवाज भी थी। लेकिन सबसे परेशान करने वाली घटना वह थी, जिसमें भाजपा शासित राज्य मध्य प्रदेश के एक मंत्री विजय शाह ने बेसिर-पैर का सांप्रदायिक सोच वाला बयान दिया। दरअसल, इस सप्ताह की शुरुआत में मंत्री विजय शाह ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की प्रेस ब्रीफ देने वाली कर्नल सोफिया के बारे में चौंकाने वाली सांप्रदायिक टिप्पणी की थी। निश्चय ही देश के लिये महत्वपूर्ण योगदान देने वाली महिला सैन्य अधिकारी के बारे में ऐसी टिप्पणी करना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। मंत्री ने असंगत रूप से पहलगाम में आतंक फैलाने वाले आतंकवादियों से दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से साम्य दर्शाने का कुत्सित प्रयास किया। हालांकि यह टिप्पणी सोमवार को की गई थी, लेकिन मंत्री शाह के खिलाफ प्राथमिकी मुश्किल से बुधवार रात दर्ज की गई। वह भी शासन द्वारा स्वत: संज्ञान लेने के बजाय मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की सख्ती के बाद ही दर्ज की गई। हाईकोर्ट ने कर्नल कुरैशी के खिलाफ ‘गटर की भाषा’ इस्तेमाल करने के लिए मंत्री शाह को फटकार लगायी। सही मायनों में हाईकोर्ट ने न केवल मंत्री को आईना दिखाया बल्कि तमाम बेलगाम बयानबाजी करने वालों को भी सख्त संदेश दिया।
उल्लेखनीय है कि एफआईआर दर्ज होने के बाद जब आरोपी मंत्री ने सुप्रीम कोर्ट से राहत के लिये गुहार लगायी तो सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें आड़े हाथ लिया। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को चेतावनी दी कि एक मंत्री को ऐसे समय में जिम्मेदारी की भावना के साथ बोलना चाहिए, जब देश चुनौतिपूर्ण स्थिति से गुजर रहा हो। फिर कोर्ट की सख्ती के बाद शाह ने खेद व्यक्त किया। उन्होंने फिर सफाई दी कि वह कर्नल कुरैशी का अपनी बहन से ज्यादा सम्मान करते हैं। लेकिन जैसे कमान से निकला तीर वापस नहीं लौटता है, उसी तरह उनकी अनर्गल बयानबाजी से जो नुकसान हो चुका था, उसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है। इससे बड़ी विसंगति यह भी कि भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें राज्य मंत्रिमंडल से हटाने की तात्कालिक गंभीर पहल नहीं की। यह विडंबना ही है कि पार्टी नेतृत्व इंतजार का खेल खेल रहा है। वहीं दूसरी ओर आरोपी मंत्री अपने बचाव के लिये कानूनी विकल्पों को आजमाने में व्यस्त रहा है। दरअसल, भाजपा की राजनीतिक मजबूरी यह है कि जातीय समीकरणों के हिसाब से वे पार्टी के लिये महत्वपूर्ण हैं। वे उस राज्य में अादिवासी कल्याण मंत्री हैं जहां अनुसूचित जनजातियों की आबादी का पांचवां हिस्सा मौजूद है। लेकिन इतना तो तय है कि चाहे उनका राजनीतिक प्रभाव कितना भी क्यों न हो, उन्हें सशस्त्र बलों के साथ-साथ ही महिलाओं का अपमान करने की छूट नहीं मिल जाती। पार्टी को राष्ट्र को आश्वस्त करने के लिये अनुकरणीय कार्रवाई करनी ही चाहिए। तभी समाज में यह साफ संदेश जाएगा कि हम आतंकवाद और सांप्रदायिक विभाजन के खिलाफ मजबूती से एकजुट हैं और नफरत फैलाने वालों को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। निश्चय ही इस मामले में अदालत की सख्त टिप्पणियां न केवल आरोपी मंत्री बल्कि उन सभी नेताओं के लिये सबक हैं जो लगातार अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। जो यह बताता है कि जनता की उदासीनता से हम कैसे-कैसे लोगों को अपना नेता चुनकर जनप्रतिनिधि संस्थाओं में भेज रहे हैं।