हसीना का निष्कासन
भले ही प्रथम दृष्टया, बांग्लादेश में हसीना सरकार के पतन की वजह आरक्षण विरोधी आंदोलन से उपजा आक्रोश बताया जा रहा हो, मगर इस आक्रोश की बुनियाद सात माह पूर्व हुए चुनाव में अनियमितताओं के बाद ही पड़ गई थी। हाल के दिनों में व्यापक पैमाने पर हुए हिंसक प्रदर्शनों ने शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद त्यागकर देश छोड़ने को मजबूर कर दिया। पिछले करीब तीन सप्ताह में हुई आरक्षण विरोधी हिंसा में तीन सौ से अधिक लोगों की जान चली गई। दरअसल, इस संकट की मूल वजह एक लोकतांत्रिक नेतृत्व का तानाशाह बनना बड़ा कारण रहा। वास्तव में लगातार चार बार प्रधानमंत्री बनने वाली शेख हसीना ने जनाक्रोश को हल्के में लिया। जिससे बांग्लादेश के जनमानस में गहरे तक यह भाव पैदा हुआ कि उनकी आकांक्षाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। हालांकि, पाक परस्त राजनीतिक दलों ने इस आक्रोश को अपने लिये सत्ता का रास्ता बनाने में इस्तेमाल किया, लेकिन इस संकट को शह देने में कई विदेशी ताकतें भी पीछे नहीं रही। दरअसल, महज सात माह पहले हुए आम चुनावों के बाद से ही देश में जनाक्रोश धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। दक्षिणपंथी रुझान वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी और अन्य राजनीतिक दलों ने आम चुनावों का बहिष्कार किया था। हालांकि,शेख हसीना लगातार चौथी बार सत्ता में तो आई, लेकिन विपक्षी दल जनता में यह संदेश देने में कामयाब रहे कि चुनावों में धांधली हुई है। इस तरह चुनावों के संदिग्ध तौर-तरीकों ने शेख हसीना की जीत को धूमिल कर दिया। जिसका अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी अच्छा संदेश नहीं गया। तभी पिछले महीनों में अपनी सरकार के लिये अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने हेतु शेख हसीना ने भारत व चीन की यात्रा की थी। हालांकि, इस दौरान देश में स्थितियां उनके अनुकूल नहीं थी। वास्तव में शेख हसीना लगातार विस्फोटक होती स्थितियों का सावधानी से आकलन नहीं कर पायी। आरक्षण आंदोलन को दबाने के लिये की गई सख्ती ने आग में घी का काम किया।
हालांकि, लगातार चौथी बार सरकार बनाने वाली शेख हसीना के खिलाफ उपजे आक्रोश के मूल में तात्कालिक कारण अतार्किक आरक्षण ही रहा, लेकिन विपक्षी राजनीतिक दल व उनके आनुषंगिक संगठन सरकार को उखाड़ने के लिये बाकायदा मुहिम चलाये हुए थे। दरअसल, वर्ष 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान के दमनकारी शासन से आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी पीढ़ी के रिश्तेदारों के लिये उच्च सरकारी पदों वाली नौकरियों में तीस प्रतिशत आरक्षण का विरोध छात्रों ने किया। उनका तर्क था कि उनकी कई पीढ़ियां आरक्षण का लाभ उठा चुकी हैं, फलत: बेरोजगारों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। लेकिन इस आंदोलन को हसीना सरकार ढंग से संभाल नहीं पायी। आंदोलनकारियों से निबटने के लिये की गई सख्ती से आंदोलन लगातार उग्र होता गया। जिसका विपक्षी राजनीतिक दलों ने भरपूर लाभ उठाया। हालांकि,सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को घटाकर पांच प्रतिशत कर दिया था, लेकिन सरकार इस संदेश को जनता में सही ढंग से नहीं पहुंचा सकी। फिर छात्र नेताओं की गिरफ्तारी ने आंदोलन को उग्र बना दिया। बड़ी संख्या में आंदोलनकारी सड़कों पर उतरे। उन्होंने हसीना सरकार के खिलाफ मजबूत मोर्चा खोल दिया। जनाक्रोश के चरम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आक्रामक भीड़ ने मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व करने वाले ‘बंगबंधु’ शेख मुजीबुर रहमान की मूर्ति तक को तोड़ दिया। निस्संदेह, सत्ता से चिपके रहने के लिये किए जाने वाले निरंकुश शासन की परिणति जनाक्रोश के चरम के रूप में सामने आती है। यह घटनाक्रम श्रीलंका में 2022 के विरोध प्रदर्शन की याद ताजा कर गया, जिसमें वहां राजपक्षे बंधुओं को सत्ता से उतरकर विदेश भागने को मजबूर होना पड़ा था। हालांकि, फिलहाल बांग्लादेश में सेना ने कमान अपने हाथ में ली है लेकिन आने वाली सरकार को उच्च बेरोजगारी, आर्थिक अस्थिरता, मुद्रास्फीति जैसे ज्वलंत मुद्दों का समाधान करना होगा। हालांकि, भारत के हसीना सरकार से मधुर संबंध थे, लेकिन हालिया उथल-पुथल को देखते हुए हमें अपनी रणनीति में बदलाव करना होगा। पाकिस्तान परस्त बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी की आसन्न वापसी से भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न होने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति सावधान रहने की जरूरत होगी।