जीवंत रहे लोकमानस की धड़कन हरियाणवी
‘हरियाणा यो जाण्या जा सै, रण में हाथ दिखाणे मैं।
सोना खेत उगाणे मैं, अर दूध-दही-घी खाणे मैं।’
हरियाणा में साहित्य सृजन की प्राचीन परंपरा है। प्रदेश में सरस्वती नदी के तट पर वेदों, उपनिषदों आदि धर्मग्रंथों की रचना हुई। यहां संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी व हरियाणवी भाषाओं में प्रचुर मात्रा में साहित्य रचा गया। हिंदी की उपभाषा हरियाणवी की लोक साहित्य में अपनी पहचान है। हरियाणवी भाषा की लोकगीतों, लोककथाओं, लोकनाट्यों, लोकोक्तियों, मुहावरों, सूक्तियों और लोकजीवन में सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
प्राचीनकाल में इस प्रदेश में संस्कृत भाषा की सरस्वती निरंतर प्रवाहमान रही। कालांतर में वह धारा पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के रूप में गुजरती हुई हरियाणवी के रूप में सामने आई है।
दरअसल, हर्षोल्लास से परिपूर्ण हरियाणवी लोक संस्कृति में खेती, तीज-त्योहारों, पारिवारिक उत्सवों, सामाजिक समारोहों में रागनी, सीठणे व चौपालों में मनोरंजन के रूप में हरियाणवी भाषा का बिंब नजर आता है। लोकपर्व, आस्था-विश्वास व मांगलिक उत्सवों में सांग के रूप में हरियाणवी लोकमानस से जोड़ती है। लोकगीतों में मार्मिक भावों की अभिव्यक्ति जितनी हरियाणवी के माध्यम से संभव है उतनी शायद ही किसी अन्य भाषा से हो सकती हो।
हरियाणवी जहां ओज के चलते वीर रस के वर्णन के लिये उपयुक्त रही है वहीं इसकी महत्वपूर्ण भूमिका स्वतंत्रता आंदोलन में भी रही। भजन गायकों, कथावाचकों, राग-रागनियों के गायकों व सांगियों द्वारा आजादी के लिए जनजागरण का कार्य किया गया।
हरियाणा के भिन्न-भिन्न अंचलों में या कहें कि दो-दो कोस के बाद हरियाणवी बोली में बदलाव पाया जाता है। जींद क्षेत्र में बांगरू, कुरुक्षेत्र के आसपास कौरवी, रेवाड़ी-महेंद्रगढ़ व आसपास अहीरवाटी, फतेहाबाद-सिरसा क्षेत्रों में बागड़ी, नूंह क्षेत्र में मेवाती, बल्लभगढ़-पलवल इत्यादि में ब्रज और फतेहाबाद व आसपास में खादरी बोली का प्रचलन पाया जाता है। लेकिन, अगर हम लोकप्रियता के पैमाने पर आंकें तो बांगरू बोली का अाधिपत्य ज्यादा है। पंडित लखमीचंद ने भी अपनी अधिकतर रचनाएं बांगरू व खादरी में ही की हैं।
इस बोली ने बॉलीवुड तक अपनी उपस्थिति दर्ज की है, दंगल, सुल्तान और तनु वेड्स मनु जैसी चर्चित फिल्मों के अलावा सीरियल्स में हरियाणवी किरदार तथा हरियाणवी बोली छाई रही है। बीते कुछ दशकों में हर विधा में हरियाणवी के ग्रंथ-पुस्तकें सामने आई हैं। हरियाणवी लोकगीतों और हरियाणवी लेखन पर काफी शोध कार्य हुआ, फिर भी अभी बहुत कुछ होना बाकी है। यह तभी संभव होगा, जब इस बोली को भाषा का दर्जा दिया जाएगा। मैं हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी को बधाई एवं साधुवाद देता हूं कि उन्होंने हरियाणवी संस्कृति तथा हरियाणवी बोली पर केंद्रित यह कार्यशाला रखी है और उन्होंने मुख्यमंत्री के समक्ष भी इस बोली को भाषा बनाने का प्रारूप तैयार करके भेजा है।
इस कार्यशाला में हरियाणवी बोली तथा साहित्य से जुड़े अनेक विद्वान शामिल हुए हैं। उनके तथा अन्य रचनाकारों के इस विषय पर शोधपत्र एवं विचार आमंत्रित करके अकादमी इस कार्य को सिरे चढ़ा सकती है। इस पुनीत पहल के लिए मैं अकादमी को अग्रिम शुभकामनाएं भी देता हूं। जहां तक दैनिक ट्रिब्यून समाचार पत्र का सवाल है हमने भी हरियाणवी बोली के संरक्षण एवं संवर्धन में पिछले चार-पांच दशकों से निरंतर विनम्र प्रयास किया है। दैनिक ट्रिब्यून के कार्टून स्तंभकार संदीप जोशी का ‘ताऊ बोल्या’ हो या फिर ‘दादा जी’ की सियासी साप्ताहिक डायरी ‘चर्चा हुक्के पै’, स्व. रामकुमार आत्रेय जैसे हरियाणवी मर्मज्ञ का साप्ताहिक गद्य स्तंभ रहा हो और या फिर व्यंग्यकार शमीम शर्मा का साप्ताहिक स्तंभ ‘तिरछी नजर’ जिसमें हरियाणवी पुछल्ला हो, या फिर हरियाणवी लोक संस्कृति में रचे-बसे साहित्यकार सत्यवीर नाहड़िया की कुंडलियां, दोहे तथा रागनी जैसे चर्चित स्तंभ ‘चालती चाक्की’, बोल बखत के, राग रागनी या फिर लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव में उनकी चुनावी चुटकियां, ‘बुरा न मानो होली है’ हों, इन सभी रचनाओं को दैनिक ट्रिब्यून ने हरियाणवी रंग में ही प्रस्तुत किया है।
इतना ही नहीं, दैनिक ट्रिब्यून को यह श्रेय भी दिया जा सकता है कि हरियाणवी संस्कृति तथा हरियाणवी बोली की सबसे ज्यादा पुस्तकों की समीक्षा पिछले तीन दशकों में अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुई हैं। मेरे संपादन काल की पहली पारी में हर सप्ताह प्रकाशित होने वाले स्तंभों में भी हरियाणवी को सदैव प्राथमिकता दी जाती रही। हरियाणवी के भूले-बिसरे साहित्यकारों तथा लोक परंपराओं को भी इन स्तंभों में सर्वाधिक स्पेस दिया गया और यह प्रयास आज भी निरंतर जारी है। मुझे अपने पत्रकारिता एवं संपादन के लंबे अनुभव के दौरान हरियाणवी साहित्य एवं संस्कृति से जुड़े अनेक चटपटे पहलू बेहद प्रिय रहे हैं, उदाहरण के लिए- ठाड्डा मारै रोवण दे ना। खाट खोस ले सोवण दे ना॥ हरियाणा का आदमी सीधी बात करता है, इसलिए उनके लिए कहा जाता है-जिसकी पेट मैं..! उसी घेट मैं...!!
हरियाणा का अपना स्वर्णिम सैन्य इतिहास है, इसलिए इसकी शौर्य गाथाएं भी अनमोल हैं। इसकी लोक संस्कृति भी बेहद अनूठी है। इन दोनों विषयों पर बहुत सारा शोध कार्य अपेक्षित है। हरियाणवी लोकगीत देश भर में चर्चित रहे हैं, कुछ को फेर-बदल कर बॉलीवुड की फिल्मों तक में इस्तेमाल किया गया है। जैसे-मनै चूंदड़ मंगा दे हो, हो नणदी के बीरा...!’ गंगा जी तेरे खेत मैं जैसी गंगा स्तुति शायद ही किसी लोक साहित्य में मिले। इस वीर भूमि की आल्हा गायन परंपरा भी बेजोड़ रही है। वहीं यहां का संत साहित्य बेहद समृद्ध रहा है। इन सब विषयों पर, हरियाणवी बोली को भाषा का दर्जा दिए जाने के बाद शोध के नए मार्ग प्रशस्त होंगे। हरियाणा के शेक्सपियर कहे जाने वाले पंडित लख्मीचंद, मांगेराम शर्मा, फौजी मेहर सिंह, दयाचंद मायना, बाजे भगत सरीखे कितने फनकार हैं, जिनकी रागनियां हरियाणा के गांव-गांव में आज भी गूंजती हैं। समय अभाव के चलते उनका उल्लेख नहीं कर पा रहा हूं। अपने संपादन के दूसरे कार्यकाल में मैंने जब सत्यवीर नाहड़िया का हरियाणवी रागनी का साप्ताहिक नया स्तंभ शुरू किया तो पहली रागनी हरियाणा दिवस पर ही उन्होंने लिखी, जिसकी कुछ पंक्तियां मैं शुरू में बोल चुका हूं।
यहां मैं हरियाणवी के प्रचार-प्रसार की संभावनाओं को लेकर कुछ सुझाव दे रहा हूं : हरियाणवी के मानक रूप का निर्धारण हो, हरियाणवी में रचित परंपरागत व लोक साहित्य से नई पीढ़ी को जोड़ा जाए, सृजनात्मक साहित्य को प्रोत्साहन से इसका प्रसार होगा, रोजगार से जोड़ने से इसके विकास की संभावना बढ़ेगी, हरियाणवी के व्याकरण-भाषा विज्ञान को समृद्ध करने की जरूरत है, हरियाणवी में रचित सृजनात्मक साहित्य का मूल्यांकन हो, हरियाणवी भाषा के साहित्य को प्रोत्साहन के लिए पुरस्कार घोषित हों, विश्वविद्यालयों में हरियाणवी भाषा विभाग की स्थापना की जाए और हरियाणवी भाषा में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिये सरकार आर्थिक सहायता दे। अंतत: राजाश्रय से ही होगा विकास हरियाणवी का।
यहां मेरा एक सुझाव और भी है कि हरियाणवी भाषा को एक समग्र रूप देने के लिए जब भी कोई आयोग बने, तो हरियाणवी भाषा के लिए एेसे मानक तय हों जिनके अंतर्गत हरियाणा की सभी बोलियों को एक कड़ी में पिरोया जा सके। यहां एक उदाहरण देना चाहूंगा कि हिन्दी समृद्ध कैसे हुई। वह ऐसे कि भारतीय संस्कृति की उदार भावना के अनुरूप ही हिन्दी ने भी उदारता दिखायी है और इसने अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी भाषाओं के अनेक शब्दों को आत्मसात किया।
लब्बोलुआब यह कि हरियाणवी भाषा के मानक कुछ इस एहतियात से तय हों कि हरियाणवी बोली में रची-बसी भावनाएं बरकरार रहें। यह तो सर्वविदित है कि जन मानस की भावनाएं ही हरियाणवी बोली की आत्मा हैं।
मैं तो आप सभी से यही आग्रह करूंगा कि आप इस प्राचीन समृद्ध बोली का संरक्षण एवं संवर्धन करते रहें तथा इसको भाषा बनाने के लिए सभी अपने-अपने स्तर पर प्रयास करते रहें, जाद्दा हमनै कोन्नी बेरा। जब जागै तभी सवेरा॥
(हरियाणा साहित्य और संस्कृति अकादमी के तत्वावधान में ‘हरियाणवी भाषा के विकास की संभावनाएं’ विषय पर आयोजित कार्यशाला में विशिष्ट अतिथि के रूप में दिये गये उद्बोधन के अंश।)