गंगा-जमुनी संस्कृति पर चोट करते तल्खी के बोल
भारत की अपार विविधता इसकी मजबूत हकीकत है। कोई राजनीतिक दल, भले ही कितना ताकतवर और किसी विचारधारा विशेष से चालित हो, वह इसको एकांगी रंग में रंगने में सफल नहीं हो पाएगा। हमारी संस्कृति साझापन लिए है, लेकिन जोर साझेदारी के पहलू पर है न कि पालना में। यह चौरास्तों की संस्कृति है, जिसने हजारों सालों के दौरान विविध प्रभावों के सुमेल से वजूद पाया है। जहां भौगोलिक रूप से यह भूभाग थलीय काफिला-मार्गों का चौराहा है, जो मध्य एशिया से होकर आगे भूमध्य सागर तक जाते थे। वहीं इसके सुदूर दक्षिणी छोर के बंदरगाह हिंद महासागर के पूरबी और पश्चिमी छोरों को जोड़ने का काम करते रहे। जिस प्रकार भारतीय धर्म और राजनीतिक विचार, भाषाएं, कला और वास्तुकला का प्रवाह इस उप-महाद्वीप से निकल दूसरे देशों में फैला, ठीक इसी तरह उन मुल्कों का प्रभाव भी समस्त भारतवर्ष पर बना। नाना देशों से आई विविध खूबियां भारतीय संस्कृति और इसके लोगों के स्वभाव में रच-बस गईं और जन्मजात महानगरीय संस्कृति विरासत में मिलती गई, यह विशेषता भारतीयों को विश्वभर में सबसे अधिक अनुकूलनशील बनाती है। देखा जाए, हम संसार के मूल वैश्विक नागरिक हैं।
जब भारत ने पिछले साल सितम्बर माह में जी-20 शिखर सम्मेलन आयोजित किया था तो इसका आदर्श वाक्य वसुधैव कुटुम्बकम् था, जो हमारी इस खूबी को सबसे अच्छी तरह परिभाषित करता था। लेकिन किसी के लिए समस्त विश्व को गले लगाने की शुरुआत पहले अपने देश के लोगों को बांहों में भरने से होनी चाहिए। यह भी एक कारण है कि क्योंकर संविधान की पूर्व-प्रस्तावना में जितना अधिमान आज़ादी और समानता को दिया गया है उतना ही बंधुत्व को भी। भारत जैसे विविधता भरे मुल्क के लिए बंधुत्व की अहमियत खासतौर पर है। यह आपसी प्यार की भावना का निर्माण करता है जो विविध जातियों, प्रजातियों या सम्प्रदायों और उनकी जीवनशैली के बीच अंतर के प्रति एक-दूसरे को सहिष्णु बनाता है। यह बंधुत्व ही है जो हमारी राष्ट्रीयता की असल नींव है। यह साझा हित एवं साझा राष्ट्रीय मिशन का लक्ष्य पाने में संबद्धता एवं संलग्नता बनाता है।
संविधान का स्वरूप बनाने वालों को पता था कि भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण इसके लोगों की बहुरंगी पहचान को मान्यता देकर होगा है न कि दबाकर। तथापि, अंतिम विश्लेषण में, वे पूरी तरह आश्वस्त न थे कि क्या भारतीय लोग अपनी अलग पहचान का संतुलन समान नागरिकता के अति महत्वपूर्ण सिद्धांत से सही ढंग से बैठा पाएंगे या नहीं। अपने अंतिम (मौजूदा) रूप में आते-आते और समय-समय पर हुए संशोधनों और विधायिका द्वारा पारित कानून धीरे-धीरे राज्यसत्ता को नागरिक अधिकारों की एवज पर बलपूर्वक मनमर्जी चलाने की ताकत से लैस करते गए। राज्यसत्ता किन्हीं पहचान रखने वालों की निरंकुशता चलने देने और अन्यों के मामले में दमन करने वाला पक्षपाती रुख रखने लगी, वह जो मौके के मुताबिक राजनीतिक हित स्वार्थ साधने में सबसे उपयुक्त हो। किन्हीं विशेष पहचान वालों पर राष्ट्रीय एकता बनाए रखने की आड़ में दमन तो वहीं दूसरों (अपने लोगों) को राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के नाम पर प्रोत्साहित करना और यहां तक कि वैधता देना। राज्यसत्ता ने मीडिया और सूचना चैनलों पर नियंत्रण और प्रभाव बना लिया ताकि कुछ सम्प्रदायों को खलनायक तो अपने वाले को श्रेष्ठ बनाकर पेश किया जा सके। ऐसा होने पर, राजनीतिक भड़काऊ भाषण वक्त की रणनीति का पूरक बन जाते हैं। इस प्रकार के नफरती बोल अक्सर ऊंचे उन्मादी सुर में चिल्ला-चिल्ला कर कहे जाते हैं ताकि अन्य सभी तार्किक मुद्दे डूब जाएं।
लोकतंत्र में, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाना एक अभिन्न अंग है, लेकिन यही काफी नहीं। एक स्वतंत्र मीडिया और एक जीवंत सिविल सोसायटी आम नागरिक के अधिकारों पर राज्यसत्ता के निरंकुश व्यवहार से रोकने में प्रहरी का काम करते हैं। वे नागरिकों की ओर से राज्यसत्ता से सवाल करते हैं और लोगों को सूचना का वैकल्पिक साधन मुहैया करवाते हैं। एक सशक्त और स्वतंत्र न्यायपालिका की भूमिका भी यही है। इतिहास में, ऐसे मामले हैं जब राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता की दलीलों का इस्तेमाल स्वतंत्र संस्थानों, विरोध का सुर उठाने वालों और अतंतः राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर राष्ट्रविरोधी होने का ठप्पा लगाकर, उन्हें गैर-कानूनी बनाने में किया गया।
भारत अपने 18वें आम चुनाव के मतदान चरणों से गुजर रहा है। यह गर्व की बात है कि विगत में देश हर पांच साल में अभूतपूर्व पैमाने के चुनाव सफलतापू्र्वक संपन्न करवाता आया है और विजयी पक्ष को सत्ता का हस्तांतरण बिना हिंसा या चुनौती के निर्विघ्न होता रहा। एक स्वतंत्र चुनाव आयोग सुनिश्चित करता है कि तमाम राजनीतिक दल और राजनेता अपने चुनावी अभियानों में नियमों में बंधकर ही वोट मांगेंगे। उम्मीद की जाती है कि उम्मीदवार धर्म, जाति या समुदाय का इस्तेमाल वोटें पाने में नहीं करेंगे। परंतु मौजूदा चुनाव प्रचार में कुछ राजनीतिक दल और नेताओं के जहरीले बोल तमाम हदें लांघ रहे हैं। भाषणों में सरेआम संप्रदाय विशेष के नागरिकों के विरुद्ध अत्यंत असभ्य और लांछित करने वाले हमले हो रहे हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर बार-बार राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप उछाले जा रहे हैं। मतदाता को भ्रमित करने के लिए यह भ्रामक सूचना और सफेद झूठ की बनी धुंध बनाने जैसा है। कहने को वे वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करते हैं लेकिन फिर भी खुलेआम हमारे नाज़ुक सामाजिक ताने-बाने में खतरनाक दरारें पैदा कर रहे हैं। जैसा मैंने ऊपर भी लिखा और फिर से दोहरा रहा हूं— हिंदू-मुस्लिम रार डालकर स्थाई राष्ट्रीय एकता नहीं बनाई जा सकती।
भारतीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ आक्रामक और धमकी भरे भाषणों को महज चुनावी तेवर कहकर रफा-दफा करना आसान है, मान लेना कि चुनाव खत्म होने के बाद स्वयं भाप बनकर उड़कर जाएंगे, यह सच नहीं है। जो चोट और भय का माहौल पीछे छोड़ा जाएगा, वह चुनाव उपरांत लंबे समय तक सुलगता रहेगा। मुख से निकले बोल वापस नहीं आते। नुकसान हो चुका है। जैसा कि कविवर रहीम ने अपने मशहूर दोहे में कहा है ः रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सुरग पाताल... आपु तो कहीं भीतर रहे, जूती खाए कपाल। (अर्थात् मेरी बेलगाम जुबान ने धरती से पाताल तक जितना झूठ बोल डाला, खुद तो मुख में छिपी रही, जूते खाने पड़े खोपड़ी को)।
चुनावी बड़बोलापन सभ्य तरीके की हदों के भीतर बना रहे। राजनीतिक ताकत हासिल करने की कोशिशें नैतिकता की कीमत पर नहीं हो सकती, वर्ना यह हरकत देश और सामाजिक ताने-बाने को विघटन की खतरनाक राह पर धकेल देगी। यह सब अपने देश को लेकर गहन चिंता की भावना से लिखा जा रहा है, वह जिसकी अतुलनीय विविधताओं को अपने भीतर समाने और जीवंत लोकतंत्र की सततता बनाए रखने का सामर्थ्य पर हम नाज़ करते आए हैं और दुनिया ईर्ष्या। यह हमारा सबसे कीमती आभूषण है, जो सदियों में पाई विविध खूबियों के रत्नों से जड़ा है और अब सदा के लिए इसके खोने का खतरा मंडरा रहा है। यह वह खजाना है जो लुट-पिट गया तो कोई भावी विश्वगुरु दुबारा फिर इकट्ठा न कर पाएगा।
लेखक भारत के पूर्व विदेश सचिव हैं।