संतोष से सुख
महान दार्शनिक लाओत्से तुंग के अनुयायियों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। लाओत्से तुंग के सामने लोग जीवन के किसी भी सवाल को लेकर जाते उनको सही और सटीक उत्तर ही नहीं समाधान भी मिलता था। एक बार लाओत्से तुंग के अनुयायियों के बीच सुख-दुख की परिभाषा को लेकर बहस छिड़ गई। लाओत्से तुंग उनको लेकर नगर की तरफ चले। राह में एक बालक गली के कुछ आवारा बेसहारा जानवरों को बांसुरी बजाकर सुना रहा था और नाच रहा था। उसकी घनघोर गरीबी भी उस बालक के चेहरे का गुलाबीपन मिटा न सकी। आगे चले तो एक सोना-चांदी, तांबा बेचने वाला बेहद परेशान तथा उदास मिला और लाओत्से तुंग से बोला, ‘काश! मैं हीरे का व्यापारी होता।’ लाओत्से तुंग आगे जाकर अपने अनुयायियों को बताने लगे। ‘देखो, अब यह साबित हो गया है कि सुख का अर्थ है जो है, उसका आनंद लेना और दुःख का अर्थ है जो नहीं है, मुझे तो बस वही चाहिए।
प्रस्तुति : पूनम पांडे