सुख और संताप
सरस्वती रमेश
पिता जी की तेरहवीं के अगले दिन नितिन, सचिन और नैतिक अपने-अपने घर जाने के लिए तैयार हैं। बस समस्या मां को लेकर है। अब मां किसके साथ रहेगी, यह तय नहीं हो पा रहा।
‘हम दोनों वर्किंग हैं। मां हमारे साथ कैसे रह सकती है। घर में कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है, जो मां की देखभाल कर सके।’ नितिन ने अपनी परेशानी व्यक्त की।
‘मेरा दो कमरों का सेट है। एक में हम रहते हैं, दूसरे में बच्चे। मानसी को भी पढ़ने के लिए अलग कमरा चाहिए। हम उसका ही इंतज़ाम नहीं कर पा रहे। मां को कहां रखेंगे।’ सचिन ने लाचारी दिखाई।
‘मैं तो रेंट पर रहता हूं। वह भी चौथी मंजिल का फ्लैट है। लिफ्ट की भी सुविधा नहीं है। मां कैसे चढ़ेगी। और फिर सौम्या की तबियत ठीक नहीं रहती। वह तो अपनी ही ठीक से देखभाल नहीं कर पाती। मां की क्या करेगी!’ नैतिक ने दोगुनी लाचारी दिखाते हुए कहा।
फिर क्या था। तीनों भाइयों में बहस-सी छिड़ गई। जैसे मां मां न हो कोई सज़ा की तारीख हो। जिससे बचने के लिए सब एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हों।
पास ही खड़ी मां सबकी बातें ध्यान से सुन रही थी। उसे बच्चों के बचपन के दिन याद आ गए। तीनों बच्चे उसे पकड़ लेते थे। सचिन कहता, ‘मां मेरी है। वह मेरे साथ रहेगी। मैं उससे लिपट कर सोऊंगा।’
नितिन कहता, ‘यह मेरी मां है। कल ही पिताजी ने मुझे चुपके से बताया था। वह मेरे साथ रहेगी।’
इतने में ही नैतिक बोल पड़ता, ‘आप लोग बड़े हो गए हो। मैं तो अभी छोटा हूं। इसलिए मां मेरे साथ रहेगी। अब वह बस मेरी मां है।’
स्मृतियों ने शुभा जी की आंखों में नमकीन पानी भर दिया। चंद बूंदें झुर्रियों से भरे गालों पर ढुलक आईं। उन्होंने अपने पल्लू से आंखें पोंछ ली। खुद को संयत किया और पूरी दृढ़ता से अपना फैसला सुनाया।
‘मुझे किसी के साथ नहीं रहना। मैं अपने पति की यादों के साथ यहीं रहूंगी। उनकी पेंशन मेरे लिए काफी है। रही बात देखभाल की तो मैं अपनी देखभाल कर सकती हूं। तुम सब अपनी अपनी चिंता करो। मेरी फिक्र की जरूरत नहीं।’
कहते ही शुभा जी अपने कमरे में चली गईं। उनके चेहरे पर सुख और संताप दोनों था। सुख अपने घर में रहने का और संताप ऐसी औलादें जनने का। तीनों बेटे शर्म और संतोष के मिले-जुले भावों के साथ अपनी-अपनी अटैची उठा चुके थे।