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जलवायु संरक्षण की आधी-अधूरी कोशिशें

06:39 AM Nov 30, 2024 IST
जलवायु संरक्षण की आधी अधूरी कोशिशें
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दिनेश सी. शर्मा

बाकू में संपन्न जलवायु वार्ता का नवीनतम दौर (कॉप-29) एक विवादित समझौते के साथ समाप्त हुआ। उम्मीद थी कि इसमें मुख्य विषय जलवायु सुधार के वास्ते वित्तीय प्रबंधन पर केंद्रित रहेगा। यह संदर्भ स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण को लेकर है ताकि जलवायु परिवर्तनों पर लगाम लग पाए और सुधार कार्य अपनाए जाएं। दशकों से, विकासशील देश जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने में प्रभावी उपाय करने के वास्ते अतिरिक्त धन की मांग करते आए हैं।
विकासशील देश चाहते हैं कि अमीर देश अधिक जिम्मेदारी उठाएं क्योंकि वर्तमान संकट के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार वही हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद से उत्तरी गोलार्ध के देशों से हुआ ऐतिहासिक उत्सर्जन ही जलवायु संकट का कारण बना है। जलवायु परिवर्तन सुधार फंड की मात्रा और इसका स्रोत लंबे समय से विकसित और विकासशील देशों के बीच विवाद का विषय रहा है।
इस पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में, बाकू वार्ता में एक अच्छा समझौता बनने की आशा जगी थी। वार्ता के निष्कर्ष में, विकासशील देशों को हर साल जलवायु सुधार के लिए, 2035 तक, कम-से-कम 300 बिलियन डॉलर देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। यह धन विभिन्न स्रोतों से आएगा- इसमें सार्वजनिक, निजी, द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और वैकल्पिक स्रोत भी शामिल हैं। इस वित्तपोषण को उपलब्ध कराने में विकसित देश अग्रणी भूमिका निभाएंगे और विकासशील देशों को स्वेच्छा से योगदान देने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
किंतु बाकू में निर्धारित वित्त लक्ष्य विकासशील देशों द्वारा मांगे गए धन और समय-सीमा से बहुत कम है- 2025 से विकसित देशों द्वारा हर साल इस मद में 1.3 ट्रिलियन डॉलर जुटाए जाने हैं। किंतु, न केवल यह आंकड़ा मांगी गई मात्रा से बहुत कम है बल्कि समय-सीमा भी बहुत दूर है। अब यह पैंतरा उत्तरी गोलार्ध मुल्कों की एक जानी-पहचानी रणनीति बन चुकी है कि किसी भी तत्काल प्रतिबद्धता से बचने के लिए एक कमजोर लक्ष्य और बहुत लंबी समय-सीमा तय कर देना। इसके अलावा, जिस वित्तपोषण का वादा किया गया है वह केवल अमीर मुल्कों से नहीं आएगा। विकासशील देशों को भी इसमें योगदान देना होगा। जाहिर है, इस प्रावधान ने विकासशील देशों को परेशान कर डाला है। वार्ता के अंत में, भारत, बोलीविया और नाइजीरिया ने इस लचर संधि पर अपनी चिंता व्यक्त की, जिसे आधिकारिक तौर पर ‘जलवायु वित्त हेतु नवीन सामूहिक मात्रा निर्धारण लक्ष्य’ का नाम दिया गया है। भारत ने कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) के अध्यक्ष पर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में निहित बहुपक्षीय वार्ता के मानदंडों का पालन किए बिना समझौते को आगे बढ़ाने का भी आरोप लगाया है।
विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए वित्तपोषण और प्रौद्योगिकी की जरूरत है। इसके शमन के लिए धन की आवश्यकता है- उत्सर्जन को महत्वपूर्ण रूप से कम करने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता पड़ेगी। यानी अक्षय ऊर्जा परियोजनाएं, ऊर्जा दक्षता, जीवित प्राकृतिक संसाधन और भूमि उपयोग का प्रबंधन, थलीय और जलीय जैव विविधता की सुरक्षा, स्वच्छ परिवहन आदि का इंतजाम करने वास्ते धन उपलब्धता।
अतिरिक्त धन की दूसरी प्रमुख आवश्यकता अनुकूलन करने के वास्ते है- प्रतिकूल प्रभावों को अनुकूल बनाना और बदलती जलवायु के प्रभावों को कम करने के लिए आवश्यक संसाधन जुटाना। उदाहरण के लिए, इसमें शामिल हैं ः तूफान और बाढ़ का सामना करने लायक बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए धन की जरूरत, वर्तमान बुनियादी ढांचा ऊपर उठते समुद्र तल से दूर स्थानांतरित करना, सूखे का सामना करने लायक फसलों के बीज विकसित करना और इनका वितरण। इसके अलावा, ‘हानि एवं नुकसान’ नामक तीसरी कार्रवाई के लिए धन की आवश्यकता है ताकि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में देशों को हुए नुकसान की भरपाई हो सके।
पिछले कुछ वर्षों में, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के तहत जलवायु वित्त के लिए अनेकानेक तंत्र और कोष बनाए गए हैं। इनमें वैश्विक पर्यावरण सुविधा, हरित जलवायु कोष, विशेष जलवायु परिवर्तन कोष, अल्प विकसित देशों का कोष, अनुकूलन कोष आदि शामिल हैं। हालांकि, हकीकत यह है कि विकासशील देशों को उपलब्ध करवाई जाने वाली इन निधियों में धन की आमद बहुत कम रही है। उदाहरणार्थ, ग्रीन क्लाइमेट फंड ने 2020-23 की अवधि के दौरान 129 विकासशील देशों में 243 परियोजनाओं के वास्ते कुल 13.5 बिलियन डॉलर देना मंजूर किया। अनुकूलन कोष ने 2010 से कई विकासशील देशों में 183 अनुकूलन परियोजनाओं के लिए 1.2 बिलियन डॉलर देने की प्रतिबद्धता जताई थी। वहीं अन्य तंत्रों से धन का प्रवाह और भी कम है। कुल मिलाकर, यूएनएफसीसीसी द्वारा प्रवर्तित निधियों और अन्य तंत्रों से उपलब्ध वित्त की मात्रा आवश्यकता से बहुत कम है। इसलिए, बाकू में मांग धन की मात्रा के साथ-साथ गुणवत्ता बढ़ाने की भी थी। लेकिन, धनी पश्चिमी देशों ने वित्तीय लक्ष्य को न्यूनतम रखने और समय सीमा यथासंभव लंबा खींचने के वास्ते हर संभव प्रयास किए। नए और अतिरिक्त वित्तपोषण के लिए प्रतिबद्धता बनाने की बजाय, मौजूदा विकास सहायता को जलवायु वित्तपोषण का ठप्पा लगाकर, नए रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह होने पर, बहुपक्षीय वित्तपोषण और विकास वित्तपोषण को जलवायु सहायता के रूप में गिना जाएगा। अब, निजी निवेश के अलावा विकास-बैंक ऋण और सरकारी खर्च द्वारा ‘जुटाए गए’ निजी वित्त भी बृहद जलवायु वित्त के अंतर्गत आएंगे। इन सबने विकासशील देशों को मिलने वाली मौजूदा विकास सहायता के अलावा मुख्य रूप से सार्वजनिक स्रोतों से प्राप्त वित्तपोषण की गुणवत्ता को भी कमजोर कर डाला है।
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी और उनके जलवायु विरोधी रुख के हौवे से लाभ उठाते हुए, विकसित देशों ने कमजोर वित्तीय समझौते को आगे बढ़ाया। उन्होंने डर बनाया कि यदि अमेरिका बहुपक्षीय जलवायु ढांचे से बाहर निकल गया, जैसा कि ट्रम्प ने अपने पिछले कार्यकाल के दौरान किया था, तो इसके असर से यूएनएफसीसीसी पटरी से उतर सकता है।
संयुक्त राष्ट्र प्रक्रिया के तहत, अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान सहित 24 विकसित देशों को विकासशील मुल्कों को जलवायु वित्त प्रदान करना है। यदि ट्रम्प के नेतृत्व वाला अमेरिका जलवायु प्रक्रिया से हट जाता है, तो अन्य विकसित देशों को अधिक बोझ उठाना पड़ेगा। इसलिए, विकसित देशों का प्रयास था कि कोई समझौता न बन सके।
बाकू जलवायु समझौते से जलवायु परिवर्तन का कोई हल निकलेगा, इसकी संभावना नगण्य थ्ाी, क्योंकि वास्तविक धन उपलब्ध नहीं है। कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि जारी है और जीवाश्म ईंधन से दूर जाने की दिशा में शायद ही कोई प्रगति हुई है। दुबई में हुए कॉप-28 में कोयला, तेल और गैस आधारित ऊर्जा से धीरे-धीरे परे हटने का आह्वान किया गया था। लेकिन इस आह्वान को मूर्त देने में बाकू में आगे कोई कदम नहीं उठाया गया। इसलिए, अगले कॉप सम्मेलन तक सब कुछ पूर्ववत‍् चलता रहेगा।

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लेखक विज्ञान संबंधी मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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