लालच बुरी बला, भगवान को भी दे भुला
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
बचपन से सुना है कि लालच बड़ी बुरी बला होती है। लालच में पड़कर आज लोग अपना सब कुछ लुटा कर बाद में रोते रहते हैं। कोई लॉटरी के लालच में तो कोई सोना दोगुना करवाने के लालच में ठगा जाता है और अपनी गांठ की पूंजी भी लुटा बैठता है। तुलसीदास तो कह गए हैं—‘लोभ सकल व्याधिन कर मूला।’
आज के समाज में लोभ और लालच कितना बढ़ गया है, यह तो ‘साइबर ठगी’ की घटनाओं के बारे में रोज सभी सुनते ही रहते हैं, फिर भी लालच ऐसी बुरी बला है कि सिर चढ़ कर बोलती है। सच तो यह है कि तृष्णा और लालच मानव मन को ऐसे जकड़ लेते हैं कि उसका विवेक ही खत्म हो जाता है। आज एक बड़ी मनोरंजक और आंखें खोल देने वाली बोधकथा पढ़ी।
‘एक राजा बहुत न्याय प्रिय, प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने ठाकुर जी की बड़ी श्रद्धा से पूजा-पाठ करता था। एक दिन ठाकुर जी ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा, ‘राजन! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं, तुम्हारी कोई इच्छा हो, तो मुझे बताओ, मैं पूरी करूंगा?’ प्रजा को चाहने वाला राजा बोला, ‘भगवन! मेरे पास आपका दिया सब कुछ है, आपकी कृपा से राज्य मे सब प्रकार सुख-शान्ति है। फिर भी मेरी एक ही इच्छा है कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही आप मेरी सारी प्रजा को भी कृपा कर अपने दर्शन दीजिये।’
‘यह तो सम्भव नहीं है’—ऐसा कहते हुए भगवान ने राजा को समझाया, परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान से जिद करने लगा, तो भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पड़ा। वे बोले, ‘ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाड़ी के पास ले आना और मैं पहाड़ी के ऊपर खड़ा होकर सभी को दर्शन दूंगा।’
अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी प्रजाजन पहाड़ के नीचे मेरे साथ पहुंचें, वहां भगवान आप सबको दर्शन देंगे। दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा और स्वजनों को साथ लेकर पहाड़ी की ओर चलने लगा। चलते-चलते रास्ते में एक स्थान पर तांबे के सिक्कों का अम्बार मिला, तो प्रजा में से कुछ एक लोग उस ओर भागने लगे। तभी ज्ञानी राजा ने सबको सतर्क किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे, क्योकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो। इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो, परन्तु लोभ-लालच में वशीभूत प्रजा के कुछ लोग तो तांबे के सिक्कों की गठरी बना-बनाकर अपने घर की ओर लौटने लगे। वे सोच रहे थे, इन सिक्कों को समेट लें, भगवान से तो फिर कभी मिल ही लेंगे।
राजा खिन्न मन से आगे बढ़े। कुछ दूर चलने पर चांदी के सिक्कों का चमचमाता हुआ अम्बार दिखाई दिया। इस बार भी बचे हुए प्रजाजनों में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे और चांदी के सिक्कों की गठरी बनाकर अपने घर की ओर चलने लगे। उनके मन में विचार चल रहा था कि ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता है। भगवान तो फिर कभी मिल ही जायेंगे।
इसी प्रकार कुछ दूर और चलने पर सोने के सिक्कों का अम्बार नजर आया। अब तो प्रजाजनों में बचे हुए सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे। वे भी दूसरों की तरह सिक्कों की गठरी लाद-लाद कर अपने-अपने घरों की ओर चल दिये। अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे। राजा रानी से कहने लगे, ‘देखो, कितने लालची हैं ये लोग? भगवान के सामने सारी दुनिया की दौलत भला क्या चीज है?’ रानी ने राजा की बात का समर्थन किया और वे दोनों आगे बढ़ने लगे।
कुछ दूर चलने पर राजा और रानी ने देखा कि सप्तरंगी आभा बिखेरता हीरों का अम्बार लगा हुआ है। अब तो रानी से भी रहा नहीं गया और हीरों की गठरी बनाने लगी। फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लू में भी बांधने लगी। बोझ के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये, परंतु हीरों की तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह देखकर राजा को अत्यन्त ही ग्लानि ओर विरक्ति हुई। बड़े दुखी मन से राजा अकेले ही आगे बढ़ते गये। वहां तो सचमुच भगवान खड़े उसका इंतजार कर रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुस्कुराए और राजा से पूछा, ‘कहां है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन? मैं तो कब से उनका इंतजार कर रहा हूं।’ राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सिर झुका दिया, तो भगवान ने राजा को समझाया, ‘राजन, जो लोग अपने जीवन में भौतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती। लालच के वशीभूत वे मेरे स्नेह तथा कृपा से सदा वंचित रह जाते हैं!’ सच यही है कि लालच हमारे विवेक को मार देता है।