महाकवि और नवाब की नवाबी
तुलसीदास जितने बड़े संत थे उतने ही बड़े महाकवि भी थे। नम्रता, सादगी और करुणा भी उनमें कूट-कूट कर भरी थी। नवाब अब्दुर्रहीम खानखाना तुलसीदास के अतीव प्रिय मित्र थे। रहीम का मुंहलगा मित्र होने के नाते तुलसीदास के पास भी लोग बड़ी उम्मीद से आते थे। तुलसीदास के पास वह निर्धन ब्राह्मण तीसरी दफा फिर आ पहुंचा, क्योंकि उसे अपनी बेटी के हाथ पीले करने थे और उसके घर में फूटी कौड़ी तक न थी। तुलसीदास ने ब्राह्मण को अपने धनीमानी मित्र अब्दुर्रहीम खानखाना के नाम दोहे की एक पंक्ति लिखकर दी और उसे उनके पास जाने को कहा। वह पंक्ति इस प्रकार थी, ‘सुरतिय नरतिय नागतिय, यह चाहत सब कोय।’ इस पंक्ति को लेकर वह ब्राह्मण रहीम के ठिकाने पर पहुंचा और तुलसीदास द्वारा लिखा संदेश उन्हें दे दिया। रहीम अपने मित्र की पंक्ति पढ़कर गद्गद हो उठे। उन्होंने ब्राह्मण को भरपूर मान-तान दिया और बहुत सारा धन देकर उसे अपने द्वार से विदा किया। साथ ही उन्होंने दोहे की दूसरी पंक्ति लिखकर ब्राह्मण को दी और उसे तुलसी बाबा को देने के लिए कहा। जो यूं थी, ‘गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।’
प्रस्तुति : राजकिशन नैन