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आध्यात्मिकता का मार्ग प्रशस्त करती कृतज्ञता

07:59 AM Dec 02, 2024 IST

आचार्य दीप चन्द भारद्वाज
मानव शरीर परमात्मा का दिया हुआ एक अनुपम उपहार एवं वरदान है। हमारे दार्शनिक एवं वैदिक ग्रन्थों तथा ऋषि मुनियों का चिंतन है कि यह मानव शरीर पुण्य कर्मों के उपरांत ही प्राप्त होता है इसलिए इस दिव्य शरीर को प्राप्त करके प्रतिपल उस जगदीश्वर के प्रति कृतज्ञ रहना विवेकशील उपासक का परम कर्तव्य है। परमपिता परमेश्वर का स्मरण करते हुए उसके द्वारा किए गए उपकारों के लिए हमारे मन में कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। सृष्टि के रचयिता ईश्वर के उपकार इस प्रकृति के कण-कण में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इस प्रकृति की संपूर्ण भौतिक सामग्री जीवात्मा अर्थात‍् मनुष्य के कल्याण के लिए है।

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ईश्वर, जीव और प्रकृति

वैदिक दर्शन में ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीन तत्वों को अनादि माना गया है। ईश्वर सच्चिदानंद हैं अर्थात‍् वह सत‍् चित और आनंद से परिपूर्ण हैं। जीवात्मा में दो गुण हैं सत‍् और चित और प्रकृति केवल जड़ है। यह संपूर्ण जड़ प्रकृति ईश्वरीय प्रेरणा से ही संचालित होती है। प्रकृति से बने इस पंचभौतिक अनित्य शरीर में दिव्य जीवात्मा का आगमन प्रभु की कृपा से होता है। वह ईश्वर संपूर्ण ब्रह्मांड का पालक और पोषक है, ईश्वर को पिता की संज्ञा दी गई है। प्रभु के उन्नत करने वाले मार्ग इतने महान और विशाल हैं कि अल्प दृष्टि मनुष्य उन्हें पूर्णता में कभी नहीं देख सकता।

रक्षण शक्ति और प्रभाव

ईश्वर की रक्षण शक्ति कभी क्षीण नहीं होती। वह सब मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग की, सब स्थावर और अस्थावर जगत की एक ही समय में बड़ी विलक्षणता से रक्षा कर रहा है। ईश्वर के मनुष्य पर असंख्य उपकार हैं। पांच तत्वों से बने हमारे इस भौतिक शरीर को ही देख लीजिए। इस अद्भुत यंत्र मनुष्य शरीर के माध्यम से प्रभु ने इसमें ज्ञानेंद्रियां, कर्मेंद्रियां, मन, बुद्धि, और आत्मा को बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ स्थापित किया है। आंखों से इस संसार के दृश्यों को हम देख रहे हैं, मुख से वाणी बोल रहे हैं, कानों से शब्दों को सुन रहे हैं, जिह्वा के माध्यम से विभिन्न पदार्थों को चख रहे हैं, मन से संकल्प विकल्प कर रहे हैं, बुद्धि से निश्चय कर रहे हैं।

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मनुष्य का सर्वोत्तम गुण

ईश्वर ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी बनाया है। मनुष्य चिंतन, मनन एवं अपनी विचार शक्ति का प्रयोग करके अच्छे और बुरे की पहचान कर सकता है परंतु अन्य निकृष्ट योनियों में यह विशेषता नहीं है। विवेकशील मनुष्य का यह सर्वप्रथम कर्तव्य बनता है कि वह इन सभी विशेषताओं को प्राप्त करके सदैव उस परमपिता परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ रहे, जीवन की विकट परिस्थितियों में भी उपासना और भक्ति के मार्ग पर चलता हुआ ईश्वर का धन्यवाद ज्ञापित करे।
इस भौतिक संसार की माया के प्रभाव में रहकर मनुष्य अज्ञान और अविद्या के वशीभूत होकर मैं और मेरा अहंकार की इस ग्रंथि में जकड़ा रहता है। थोड़े से ज्ञान, बल, पद, प्रतिष्ठा को प्राप्त करके मनुष्य अपने आप को सर्वोपरि मानने लग जाता है। अहंकार की इस दलदल में धंसा हुआ तामसिक प्रवृत्ति का मनुष्य ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के भाव को त्याग कर जीवन में सदैव अशांत, तनाव ग्रस्त तथा दुखों में ही घिरा रहता है।

आध्यात्मिक बीजारोपण

ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव मनुष्य के मानस पटल पर दिव्य गुणों की स्थापना करने में सहायक होता है। जीवन में श्रेष्ठ कर्मों को करते हुए ईश्वर के प्रति नतमस्तक होना, उसके अनंत उपकारों का स्मरण करते हुए उसका धन्यवाद करना एक श्रेष्ठ उपासक के लिए अनिवार्य है।
ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव मनुष्य को आध्यात्मिकता और साधना के मार्ग की और अग्रसर करता है। कृतज्ञता की भावना मनुष्य के अंतःकरण में ईश्वरीय भक्ति का बीजारोपण करती है।

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