भक्ति की शोभा
चित्रकूट में एक बार एक पत्र-पुष्प विहीन ठूंठ पर भगवान श्रीराम की दृष्टि पड़ी। एक जड़विहीन अमरबेल उस ठूंठ से लिपटी थी। अमरबेल की हरियाली से, वह ठूंठ हरा-भरा लग रहा था। सीताजी ने पूछा, प्रभु! इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं? रामजी ने कहा, ‘वह ठूंठ कितना भाग्यशाली है, इसके पास अपनी कुछ शोभा नहीं है, फिर भी यह कितना धन्य है कि इसे इस अमरबेल का संग मिला, इसकी पूरी शोभा इस बेल के कारण है।’ सीताजी कहने लगीं, ‘प्रभु! धन्य तो यह अमरबेल है, जिसे ऐसा आश्रय मिल गया। नहीं तो यह जड़हीन बेल भूमि पर ही पड़ी दम तोड़ देती, कैसे तो ऊपर उठती, कैसे फलती-फूलती, कैसे सौंदर्य को प्राप्त होती? भाग्य तो इस बेल का है, वृक्ष का तो अनुग्रह है।’ अब निर्णय कौन करे? दोनों ही लक्ष्मणजी की ओर देखने लगे। लक्ष्मणजी ने देखा कि उस वृक्ष और बेल से बनी छाया में एक पक्षी बैठा है। लक्ष्मणजी की आंखें भीग आईं। कहने लगे, भगवान! न तो यह वृक्ष धन्य है, न बेल। धन्य तो यह पक्षी है, जिसे इन दोनों की छाया मिली है। ब्रह्म तो वृक्ष जैसा अविचल है, वह बस है, जैसा है वैसा है, तटस्थ है। जब भक्ति रूपी लता इससे लिपट जाती है, तब ही यह शोभा को प्राप्त होता है।
प्रस्तुति : पूनम पांडे