सरकारी जवाबदेही व समाज की संवेदनशीलता जरूरी
क्षमा शर्मा
कोई भी दिवस किसी समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए घोषित किया जाता है। पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस मनाया जाना बताता है कि दुनिया में बुजुर्गों की स्िथति विकट है। हेल्पेज इंडिया का 60 से 90 वर्ष तक की आयु की शहरी-ग्रामीण करीब आठ हजार महिलाओं पर अध्ययन गहरे निहितार्थ सामने लाता है। अध्ययन में शामिल बीस राज्यों, पांच महानगरों और दो केंद्रशासित प्रदेशों की महिलाओं में से सोलह प्रतिशत ने बताया था कि उन्हें मारपीट सबसे अधिक झेलनी पड़ती है। साथ ही तमाम तरह की बदसलूकी जैसे कि बात-बात पर अपमान, गाली-गलौज , खाना न देना, मनोवैज्ञानिक मसले आदि शामिल हैं।
चौंकाने वाली बात यह कि सर्वे में शामिल चालीस प्रतिशत महिलाओं ने बुरे व्यवहार के लिए बेटों को जिम्मेदार माना। इकत्तीस प्रतिशत नेे रिश्तेदारों के द्वारा हिंसा झेली तो सत्ताइस प्रतिशत ने इसके लिए बहुओं को जिम्मेदार माना। ज्यादा चिंताजनक बात यह कि ये महिलाएं परिवार और आसपास के लोगों से इतना डरती भी हैं कि पुलिस को बुरे व्यवहार की सूचना नहीं देती हैं।
विडंबना है कि यह सिर्फ महिलाओं की ही समस्या नहीं है, बड़ी संख्या में पुरुष भी पीड़ित हैं। इस तरह का प्रामाणिक अध्ययन जरूर किया जाना चाहिए। सरकारी बेरुखी के बीच देश में बुजुर्गों की संख्या दस करोड़ के आसपास बताई जाती है। वे वोटर्स भी हैं लेकिन किसी राजनीतिक दल की चिंता के केंद्र में नहीं दिखाई देते। उन्हें तो एक तरह से फ्यूज बल्ब मान लिया जाता है जो किसी के काम के नहीं हैं, न समाज के, न सरकार के, न दो पैसे कमाने लायक बल्कि अपने हर काम के लिए दूसरों पर निर्भर। तो जो निर्भर है भला उसकी मदद कोई क्यों करे। इसीलिए बुजुर्गों के प्रति बदसलूकी बढ़ती जाती है और हम आंखें मूंदें रहते हैं। मीडिया भी इनकी समस्याओं की अनदेखी करता है क्योंकि बुजुर्गों के झुर्रीभरे चेहरे चैनल्स की चमकदार और युवा दुनिया के किस काम के।
बहुत दिन पहले एक वीडियो देखा था कि एक बेहद कृशकाय बूढ़ी महिला को एक युवा स्त्री घसीटकर लाती है और सड़क किनारे उसे उठा-उठाकर पटकती है, बार-बार। पीटती जाती है। बूढ़ी महिला चीख-चिल्ला रही है। रो रही है। वह बचने की कोशिश भी कर रही है, मगर बच नहीं पाती। उसे बचाने का प्रयास कोई राहगीर नहीं करता। बुढ़िया चिल्लाती रहती है, लेकिन लगता है कि सड़क से गुजरते लोग बहरे हो गए हैं। यह बहरापन, हमें किसी से क्या मतलब की भावना और दूसरे के दुःख से निरपेक्षता को दर्शाता है, जो हिंसा करने वालों का हौसला बढ़ाता है। और जब तक हम खुद हिंसा का शिकार न हों, हमें चिंतित भी नहीं करता। जो स्त्री उस बूढ़ी महिला को पीट रही थी, वह निश्चित तौर पर उसके परिवार की सदस्य ही रही होगी। सवाल उठा कि बाहर के हिंसक व्यवहार से तो शायद निपटा भी जा सके, लेकिन परिजनों के हिंसक व्यवहार का निवारण कैसे हो।
बुजुर्गों के प्रति अपनों द्वारा हिंसा, भेदभाव, प्रापर्टी अपने नाम कराकर उन्हें बेदखल कर देने आदि की खबरें लगातार आती रहती हैं। लेकिन शायद ही कोई इन पर ध्यान देता है। बल्कि सरकारों में बड़े पद पर बैठे बहुत से लोग ही बुजुर्गों को देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बताने लगते हैं। हां अदालतें जरूर अकसर बुजुर्गों के पक्ष में फैसले देती हैं, मगर अदालतों तक कितने बुजुर्ग पहुंच पाते हैं। कितनों के शरीर में इतना दम होता है और संसाधन भी कि वे अदालतों तक पहुंच सकें।
शहरों में ऐसे बुजुर्ग भी बड़ी संख्या में मिलते हैं जो स्वस्थ हैं। आर्थिक संसाधनों की भी कोई कमी नहीं, लेकिन उनके पास समय काटने का कोई साधन नहीं। जिनके बच्चे साथ रहते हैं, चाहे घर बुजुर्गों का ही हो, वहां कोई सम्मान नहीं। यह भावना भी बराबर बनी रहती है जैसे कि बच्चे उनके साथ रहकर उन पर बड़ा भारी अहसान कर रहे हों। कई बार तो बच्चे बुजुर्गों का सारा पैसा हड़प लेते हैं और उन्हें असहाय छोड़ देते हैं।
ऐसे में यदि उनके साथ मारपीट और हिंसा भी होने लगे और अस्वस्थ होने की अवस्था में इलाज और देखभाल की भी कोई व्यवस्था न हो तो ये लोग कहां जाएं? सरकारें यदि चाहें तो इनके अनुभव का लाभ उठा सकती हैं। इनकी योग्यता के अनुसार इन्हें काम देकर समाज में इनकी भूमिका बढ़ सकती है। साथ ही इनका आत्मविश्वास भी बढ़ सकता है। हां, जो इनके प्रति बुरा सलूक करे, उससे भी सरकार निपटने की व्यवस्था करे, पुलिस बदसलूकी का संज्ञान ले, वरना तो इनका जीवन ही दूभर हो जाएगा।
कुछ साल पहले एक मित्र अपना मकान बेचकर बेटे के पास अमेरिका चले गए। अभी गए एक महीना भी शायद नहीं बीता था कि उनका फोन रात के बारह बजे आया। उनका कहना था कि जब उनके बहू-बेटे दफ्तर चले गए हैं, तब वे फोन कर रहे हैं। जितनी जल्दी हो सके लौटना चाहते हैं। क्या उनके लिए एक किराए के मकान की व्यवस्था हो सकती है। बोले बच्चों के कहने पर कभी अपनी छत नहीं छोड़नी चाहिए। आप कहीं के नहीं रहते।
ऐसे किस्से इन दिनों आम हो चले हैं। विडंबना कि देश में ऐसी बेशुमार कहानियां बिखरी पड़ी हैं जहां सब कुछ होते हुए भी उनके परिजनों ने उनके अपने ही घर से बाहर कर दिया।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।