Alvida Manmohan Singh : अलविदा ! भारत की आर्थिकी के उदार सरदार
नयी दिल्ली, 26 दिसंबर (एजेंसी)
Alvida Manmohan Singh : सौम्य और मृदुभाषी स्वभाव वाले मनमोहन सिंह भारत में आर्थिक सुधारों का सूत्रपात करने वाले शीर्ष अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री के तौर पर लगातार दो बार गठबंधन सरकार चलाने वाले कांग्रेस के पहले नेता के तौर पर याद किए जाएंगे। उनका बृहस्पतिवार को निधन हो गया।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र के 10 वर्षों तक प्रधानमंत्री रहे सिंह को दुनियाभर में उनकी आर्थिक विद्वता तथा कार्यों के लिए सम्मान दिया जाता था। उन्होंने भारत के 14वें प्रधानमंत्री के रूप में वर्ष 2004 से 2014 तक 10 वर्षों तक देश का नेतृत्व किया। कभी अपने गांव में मिट्टी के तेल से जलने वाले लैंप की रोशनी में पढ़ाई करने वाले सिंह आगे चलकर एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद बने।
सिंह की 1990 के दशक की शुरुआत में भारत को उदारीकरण की राह पर लाने के लिए सराहना की गई, लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों पर आंखें मूंद लेने के लिए भी उनकी आलोचना की गई।
उनके करीबी सूत्रों की माने तो राहुल गांधी द्वारा दोषी राजनेताओं को चुनाव लड़ने की अनुमति देने के लिए अध्यादेश लाने के केंद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले की प्रति फाड़ने के बाद सिंह ने लगभग इस्तीफा देने का मन बना लिया था।
उस समय वह विदेश में थे। भाजपा द्वारा सिंह पर अक्सर ऐसी सरकार चलाने का आरोप लगाया जाता था जो भ्रष्टाचार से घिरी हुई थी। पार्टी ने उन्हें ‘मौनमोहन सिंह’ की संज्ञा दी थी और आरोप लगाया था कि उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ नहीं बोला।
पाक पंजाब के गाह में हुए थे पैदा
अविभाजित भारत (अब पाकिस्तान) के पंजाब प्रांत के गाह गांव में 26 सितंबर, 1932 को गुरमुख सिंह और अमृत कौर के घर जन्मे सिंह ने 1948 में पंजाब में अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की। उनका शैक्षणिक करियर उन्हें पंजाब से ब्रिटेन के कैंब्रिज तक ले गया जहां उन्होंने 1957 में अर्थशास्त्र में प्रथम श्रेणी ऑनर्स की डिग्री हासिल की।
सिंह ने इसके बाद 1962 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नाफील्ड कॉलेज से अर्थशास्त्र में ‘डी.फिल’ की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत पंजाब विश्वविद्यालय में एक छात्र और एक प्राध्यापक के रूप में की। बाद में प्रतिष्ठित ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ के संकाय में अध्यापन से की। उन्होंने ‘यूएनसीटीएडी’ सचिवालय में भी कुछ समय तक काम किया और बाद में 1987 और 1990 के बीच जिनेवा में ‘साउथ कमीशन’ के महासचिव बने।
आरबीआई के गवर्नर और यूजीसी के चेयरमैन भी रहे
वर्ष 1971 में सिंह भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के रूप में शामिल हुए। इसके तुरंत बाद 1972 में वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने जिन कई सरकारी पदों पर काम किया उनमें वित्त मंत्रालय में सचिव; योजना आयोग के उपाध्यक्ष, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमंत्री के सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के पद शाामिल हैं।
उनके करियर का महत्वपूर्ण मोड़ 1991 में नरसिंह राव सरकार में भारत के वित्त मंत्री के रूप में सिंह की नियुक्ति था। आर्थिक सुधारों की एक व्यापक नीति शुरू करने में उनकी भूमिका को अब दुनियाभर में मान्यता प्राप्त है।
सोनिया के इनकार के बाद चुने गये पीएम
उनका राजनीतिक करियर 1991 में राज्यसभा के सदस्य के रूप में शुरू हुआ, जहां वह 1998 से 2004 के बीच विपक्ष के नेता रहे। उन्होंने इस साल (3 अप्रैल) को राज्यसभा में अपनी 33 साल लंबी संसदीय पारी समाप्त की। सिंह के परिवार में उनकी पत्नी गुरशरण कौर और उनकी तीन बेटियां हैं।
सिंह नोटबंदी के मुखर आलोचक थे और उन्होंने इसे ‘संगठित और वैध लूट’ कहा था। मनमोहन सिंह ने जुलाई, 1991 के बजट में अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था, ‘पृथ्वी पर कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है। मैं इस प्रतिष्ठित सदन को सुझाव देता हूं कि भारत का दुनिया में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उदय होना चाहिए, यह एक ऐसा ही एक विचार है।’ प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में सिंह को विवादास्पद मुद्दों पर अपनी सरकार के रिकॉर्ड और कांग्रेस के रुख का बचाव करते देखा गया और कहा कि वह एक कमजोर प्रधानमंत्री नहीं थे।
सिंह ने तब कहा था, ‘मैं ईमानदारी से उम्मीद करता हूं कि समकालीन मीडिया या उस मामले में संसद में विपक्षी दलों की तुलना में इतिहास मेरे प्रति अधिक दयालु होगा।’ कई लोगों का मानना है कि वह एक ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिन्हें न केवल उन कदमों के लिए याद किया जाएगा जिनके द्वारा उन्होंने भारत को आगे बढ़ाया, बल्कि एक विचारशील और ईमानदार व्यक्ति के रूप में भी याद किया जाएगा।
1991 के इकॉनोमिक रिफॉर्म की कहानी... ऐसे बदले थे हालात
डॉ. मनमोहन सिंह 2004 से लेकर 2014 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। उससे पहले वह नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री भी रह चुके हैं। यह वो समय था, जब अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया था और सोवियत संघ का साम्यवाद अपनी अखिरी सांसें गिन रहा था। तेल के दामों में अचानक से आग लग गई। भारत में फॉरेन एक्सचेंज की किल्लत चल रही थी और जब तेल के दाम बढ़े तो अर्थव्यवस्था की कमर टूटने लगी। डॉलर की कमी के चलते संभव था कि कर्ज की अगली किस्त भी जमा नहीं कर पाते। इसी समय भारत की ओर से सोना गिरवी रखने की बात सामने आई थी।
फिर राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की सरकार बनती है और प्रधानमंत्री बनते हैं पीवी नरसिम्हा राव। उनकी आत्मकथा लिखने वाले विनय सीतापति बताते हैं कि नरसिम्हा राव के राजनीतिक करियर को देखकर कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा था कि वो रिफॉर्म जैसा कोई कदम उठा सकते हैं। राव की सरकार में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह थे। उन्होंने अपने वित्त मंत्री को देश की आर्थिक स्थिति की समस्या से निपटने का जिम्मा सौंपा। इसके बाद जुलाई के महीने से आर्थिक सुधारों के लिए ठोस कदम उठाए जाने की शुरुआत हुई। आर्थिक सुधारों के तहत भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन होना था। डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत कम की गई। इसके बाद 24 जुलाई को मनमोहन सिंह ने बजट पेश किया। बजट भाषण में उन्होंने कहा था कि किसी विचार का अगर सही समय आ जाए तो फिर उसे कोई ताकत रोक नहीं सकती।
आयात शुल्क को 300 फीसदी से घटाकर 50 फीसदी किया गया। सीमा शुल्क को 220 प्रतिशत से घटाकर 150 प्रतिशत किया गया। आयात के लिए लाइसेंस प्रक्रिया को आसान बनाया गया।
इस बजट को भारतीय इतिहास का सबसे क्रांतिकारी बजट माना जाता है। खुद प्रधानमंत्री इन सुधारों को लेकर आश्वस्त नहीं थे। बजट को लेकर विपक्ष ने जमकर हंगामा किया था। पूर्व पीएम चंद्रशेखर ने पीएम नरसिम्हा राव से कहा था कि इन्ही कारणों से ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आई और इतने साल शासन किया। इस पर राव ने उनसे पूछा कि हमने तो आपके आदमी को वित्त मंत्री बनाया है तो आप क्यों इसकी आलोचना कर रहे हैं तो इसके जवाब में चंद्रशेखर ने कहा कि जिस चाकू को सब्जी काटने के लिए लाया गया उससे आप हार्ट का ऑपरेशन कर रहे हैं। हालांकि बाद में बजट को लेकर जो प्रतक्रियाएं आई वो बाद में गलत साबित हुईं। अर्थव्यस्था के लिए उदारीकरण की नीति सफल रही और साल के अंत तक जो सोना गिरवी रखा गया वो वापस आया और अलग से सोना भी खरीदा गया।
मनमोहन काे सेवा और विनम्रता के लिए हमेशा याद किया जाएगा : मुर्मू
सादगी के प्रतीक थे : सुरजेवाला
सबसे प्रतिष्ठित नेताओं में से एक थे मनमोहन : मोदी
मनमोहन का दयालुता के साथ मूल्यांकन करेगा इतिहास : खड़गे
नयी दिल्ली, 26 दिसंबर (एजेंसी)
मनमोहन के रूप में अपना मार्गदर्शक खो दिया : राहुल
सुधारों के पुरोधा थे : भूपेंद्र सिंह हुड्डा
दुनिया के महान अर्थशास्त्री, भारत में आधुनिक सुधारों के पुरोधा और अपने काम के जरिये देश को प्रगति पथ पर आगे बढ़ाकर दुनियाभर में अलग पहचान दिलाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जी के निधन की खबर से मन व्यथित है। उनके जाने से राजनीतिक जगत को अपूरणीय क्षति हुई है जो निकटतम भविष्य में भर पाना बेहद मुश्किल है। दिवंगत आत्मा को भावभीनी श्रद्धांजलि, परिवारजनों व समर्थकों के प्रति गहरी संवेदनाएं।
हरियाणा के सीएम नायब सैनी ने जताया शोक
ममता, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश, तेजस्वी, स्टालिन ने भी जताया निधन पर दुख
नयी दिल्ली, 26 दिसंबर (एजेंसी)
संसद में जब सुषमा की शायरी के जवाब में कहा था, ‘माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं...’
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निधन के बाद संसद में सुषमा स्वराज की शायरी के जवाब में कहा गया शेर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। एक्स पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें वह लोकसभा सदन में दो लाइन शायरी पढ़ी जिसे खूब पसंद किया गया। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं...’, इतना कहते ही सदन में सभी सांसद मुस्कुरा उठे। इस वीडियो में पूर्व विदेश मंत्री व भाजपा की दिग्गज नेता स्व. सुषमा स्वराज भी मुस्कुराती हुई दिख रही हैं। इसके बाद मनमोहन ने शायरी पूरी करते हुए कहा, ‘तू मेरा शौक तो देख, मेरा इंतजार देख।’
... जब अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर अड़ गए थे
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बेशक कुछ लोग 'कमजोर पीएम' कहते रहे हों, मगर जब बात भारत-अमेरिका परमाणु समझौते की आई तो वह अड़ गए। उन्होंने अपना कड़ा रुख दिखाया। मनमोहन के इस रूप ने पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया था। मनमोहन का यह रूप पूरी दुनिया के सामने देशहित के लिए गए फैसलों का एक बड़ा नजारा था। भारत पर लगे परमाणु प्रतिबंधों को खत्म करने के लिए भारत और अमेरिका का न्यूक्लियर डील एक मील का पत्थर थी। इस मामले में मनमोहन ने सभी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की बोलती बंद कर दी। यहां उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह की सरकार उस वक्त वामदलों के समर्थन पर टिकी हुई थी जो अमेरिका के साथ परमाणु करार के कड़े विरोधी थे। सहयोगी दल के विरोध के बावजूद वह अपने रुख पर कायम रहे।