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देवता, दानव और कसौटी पर राजनीतिक दल

08:43 AM Oct 14, 2024 IST
देवता  दानव और कसौटी पर राजनीतिक दल
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द ग्रेट गेम
ज्योति मल्होत्रा

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समस्त भारत में पिछले हफ्ते बुराई पर अच्छाई की जीत का मंचन चला। शुक्रवार को चंडीगढ़ में मेरे घर के पीछे, गढ़वाल की एक रामलीला मंडली ने लक्ष्मण द्वारा रावण के योद्धा-पुत्र मेघनाद का वध किए जाने वाले प्रसंग की नाट्य प्रस्तुति की, जैसा कि नवरात्रों के नौवें दिन किया जाता है। चमकते तारों की रोशनी तले और आइसक्रीम विक्रेता की आवाज़ के बीच, यह गाथा अनवरत अपने तार्किक निष्कर्ष की ओर बढ़ रही थी। रावण को बस अगले ही दिन यानी शनिवार को राम के अचूक बाण से मरना बाकी था।
तथापि, जब आप रामलीला से घर लौट रहे होते हैं, तो इस तथ्य से बच नहीं सकते कि देवता भी समय आने पर सभी रणनीतिक उपायों को इस्तेमाल करते हैं– मसलन, प्रसिद्ध बंगाली कवि माइकल मधुसूदन दत्त के अनुसार, लक्ष्मण ने मेघनाद को एक मंदिर में घेर लिया, जहां वह निहत्था था और उसका वध किया। इस बीच, बंगाल में माहौल देवी मय रहा, मंजीरों की तेज आवाज़ से ताल बैठाता ढाक-वादकों का कर्णभेदक नाद और पुजारी के दीपक से उठते धुएं के साथ देवी दुर्गा दानव महिषासुर का वध करने के लिए पूरी तरह तत्पर थी। कोलकाता के एक पंडाल में बनाई एक आश्चर्यजनक झांकी में देवी को एक महिला डॉक्टर को अपनी बाहों में समेटे दिखाया गया, जो सफेद कोट पहने और स्टेथोस्कोप से लैस थी - यह आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक युवा डॉक्टर की क्रूरतापूर्वक हत्या व दुराचार पर जारी विरोध का सीधा द्योतक था।
पिछले से पिछले सप्ताह, भारत के पुरुष और महिला रूपी देवों ने भी अपनी मानवी लड़ाइयां लड़ीं, जबकि हरियाणा और जम्मू एवं कश्मीर के राजनेता एक-दूसरे की देखादेखी में वह सब करने में लगे थे, जिससे फायदा होने की उम्मीद हो - हरियाणा में भाजपा चकित कर देने वाली अपनी जीत का जश्न मना रही है, जबकि इंडिया गठबंधन जम्मू और कश्मीर में मिले जनादेश को लेकर गौरवान्वित हो रहा है। दोनों राज्यों में, मतदाता ने मनमानी करने वाली राजनीतिक ताकतों को दंडित किया है, जो मतदाता को गंभीरता से नहीं लेते।
दुर्भाग्यवश, कांग्रेस पार्टी अभी भी इस तथ्य को मानने से इनकार कर रही है कि भाजपा ने हरियाणा में ईमानदार और स्पष्ट रूप से जीत अर्जित की है। भगवा पार्टी ने कड़ी मेहनत की, लीक से हटकर हर संभव प्रयास किया, हर तरीका बरता। आरएसएस कार्यकर्ताओं द्वारा घर-घर जाकर प्रचार करने के अलावा प्रत्येक सीट की माइक्रो मैनेजमेंट की, यह सुनिश्चित किया कि विपक्षी उम्मीदवारों के वोट में सेंध लगाने को प्रत्याशी खड़े किए जाएं या फिर डेरा सच्चा सौदा प्रमुख राम रहीम को पैरोल पर रिहा करवाने तक, ताकि अंदरखाते दिए उसके संदेश का राज्य भर की लगभग 35 सीटों पर असर हो। ऐसा कुछ बचा नहीं,जो भाजपा ने छोटे से सूबे हरियाणा में करने की कोशिश न की हो।
भाजपा के पक्ष में जनादेश ने कांग्रेस पार्टी को सकते में डाल दिया है। पार्टी प्रवक्ता जयराम रमेश ने दोष ईवीएम पर मढ़ने की कोशिश की, उनका कहना है कि भाजपा ने सोर्स कोड के साथ छेड़छाड़ की - यह एक ऐसा आरोप है, जोकि मतदाता के विवेक पर प्रश्नचिन्ह है (हालांकि बाद में इस आरोप को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है क्योंकि समझदार कांग्रेस नेता-नेत्रियों ने महसूस किया कि इससे लोकतांत्रिक जनादेश का कितना नुकसान हो सकता है)। बदतर है कि राहुल गांधी ने हार का ठीकरा क्षेत्रीय क्षत्रपों भूपिंदर सिंह हुड्डा और कुमारी सैलजा के बीच अंदरूनी लड़ाई पर फोड़ कर मामला रफा-दफा करने कोशिश की है।
स्पष्टतः, इससे खराब शायद ही कुछ हो कि कोई नेता अपनी टीम की हार की जिम्मेवारी खुद पर लेने से इनकार करे- खासकर उस सूरत में, यदि राज्य में उनकी पार्टी जीत जाती तो सारा श्रेय उन्हीं को दिया जाता। एक जांच बैठा दी गई है, लेकिन लगता है कि राहुल खुद आगे बढ़ चुके हैं। इस एक इशारे में नैराश्य और अहंकार, दोनों नजर आते हैं। कुलीनता भरे अहसास का भाव होता है - आप मेरे प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन यदि आप नहीं होते, तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।
जम्मू-कश्मीर में भी ठीक यही हुआ। कांग्रेस ने इस प्रकार अधिकार जताने वाला व्यवहार किया कि जम्मू में सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार छांटने तक की परवाह नहीं की–‘लोगों ने तो हमें वोट देनी ही है, क्योंकि वे भाजपा से बहुत त्रस्त हैं’- यह खामख्याली पाले रखी। निश्चित रूप से यह सत्य है कि पूरे एक महीने पहले, सितंबर के मध्य तक भी, अनेकानेक वजहों से भाजपा जम्मू से गंभीर रूप से मुश्किल स्थिति में थी,लेकिन यह श्रेय उसके स्थानीय नेतृत्व को जाता है कि इससे निकलने में कड़ी मेहनत की। आरएसएस-भाजपा ने महसूस किया कि वे जम्मू में खराब प्रदर्शन करना गवारा नहीं कर सकते, क्योंकि यह हिंदुत्व की वैचारिक नींव है। जब परिणाम आए, तो भाजपा ने 29 सीटें जीतीं,जो खुद उसकी अपनी अपेक्षाओं से काफी बेहतर रहा।
यह पक्का है, भाजपा जम्मू-कश्मीर को लेकर निश्चिंत है, क्योंकि भले ही उमर अब्दुल्ला ने लोकप्रिय जनादेश हासिल कर लिया हो, वह नवनिर्वाचित विधानसभा के सभी अधिकार बहाल नहीं करेगी, कम से कम फिलहाल तो नहीं। तब श्रीनगर में भी दिल्ली की भांति उपराज्यपाल अपने आका के कहे पर चलेंगे।
फिर भी, भाजपा के बारे में आपका जो भी मत हो – यह बात आप भी मानेंगे कि वह सीखती भी तेजी से है, और जरूरत पड़ने पर वांछित परिणाम पाने को अपना अहंकार तक तज देती है। हरियाणा में यही हुआ। भाजपा को अहसास हो गया कि लोकसभा चुनाव के दौरान उछाले गये अतिशयी नारे (अबकी बार-400 पार) को यूपी के दलितों ने संविधान में संशोधन करने और अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए तय 22.5 प्रतिशत आरक्षण से छेड़छाड़ करने के खतरे के रूप में लिया। यही कारण है कि राजनीतिक रूप से भारत के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में उसे 29 कीमती सीटें गंवानी पड़ीं। इसीलिए हरियाणा में भाजपा ने हर संभव प्रयास किया कि जाटों (हुड्डा की जाति) और दलितों (कुमारी सैलजा की जाति) के बीच एका न होने पाए -यह महसूस करते हुए कि अगर इसे नहीं रोका गया, तो घातक होगा। जब हुड्डा और सैलजा के बीच सार्वजनिक तौर पर ब्यानों के जरिये यह होड़ लगी हुई थी कि हरियाणा की गद्दी पर बैठने का कौन अधिक हकदार है, तो आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने हर गांव और मोहल्ले में यह संदेश पहुंचाया : यदि जाट सत्ता में आए (हुड्डा का संदर्भ) तो दलितों और पिछड़ों के साथ बुरा व्यवहार होगा, ठीक वैसा ही, जैसा कि अब सैलजा के साथ हो रहा है।
हालांकि, यह सब अब यमुना के पानी में समा चुका है। भाजपा के नायब सिंह सैनी 17 अक्तूबर को दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। भाजपा की सत्ता की परंपरागत जाट प्रभुत्व वाली बिसात को उलटकर समीकरण पिछड़ी एवं दलित जातियों की ओर मोड़ने वाली रणनीति कारगर रही। हरियाणा में जीत हासिल करके भाजपा ने कांग्रेस पार्टी के बढ़ते ग्राफ को रोक दिया है। इसने कांग्रेस के अति-आत्मविश्वासी, परस्पर उलझे क्षत्रपों को एक-दूसरे के खिलाफ खुलकर दोषारोपण करने को उकसाया है और इस प्रकार पार्टी की एकता कमजोर हुई है। इसने एक बार फिर दिखा दिया है कि राहुल गांधी भले ही एक सहज इंसान हों, लेकिन वे महाभारत की धरती को वास्तव में नहीं समझ सके।
क्या इससे कोई फर्क पड़ता है? कि जिस प्रकार रावण एक घातक बाण से गिराया गया या महिषासुर का वध देवी दुर्गा ने किया, लगता है इस सवाल का सिर्फ एक ही जवाब है...‘हां’।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

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