माटी की महिमा
एक बार भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से उनके एक विदेशी मित्र मिलने आये। राष्ट्रपति के सैनिक सचिव ने उनको बताया कि डॉ. साहिब पूजा कर रहे हैं। विदेशी सज्जन बोले, ‘मुझे दिल्ली से बाहर जाना है, यदि भेंट अभी हो जाती तो अच्छा रहता।’ सचिव ने राजेंद्र बाबू से पूछा तो उन्होंने उदारता से कहा, ‘उन्हें भीतर ले आइये।’ मेहमान ने देखा कि पूजा के सामान में एक मिट्टी की डली भी रखी है, जिसके चारों ओर कलावा लिपटा हुआ है। उसे समझ नहीं आया कि मिट्टी रखने का क्या प्रयोजन है। उसने संकोच से पूछा, ‘आप इतने पढ़े-लिखे हैं। सर्वोच्च पद पर बैठे हैं। फिर भी मिट्टी जैसी चीज को पूज रहे हैं। क्यों? आखिर इसका क्या मोल है?’ राजेंद्र बाबू ने जवाब दिया, ‘यह हमारे वतन की माटी है। प्रभु की नियामत है। मनुष्य का माटी से वही संबंध है जो पुत्र का मां से है। हमारे बड़े माटी को माता कहकर उसकी पूजा करते आए हैं। चौरासी लाख योनियों के जीवन का आधार यही माटी है। यह हमें अन्न-जल देती है, हमारा मल-मूत्र बर्दाश्त करती है और मरणोपरांत हमारी माटी भी यही संगवाती है। मिट्टी की महिमा अपरंपार है।’
प्रस्तुति : राजकिशन नैन