For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

वैश्विक साझेदारी से पर्यावरण संकट का समाधान

06:42 AM Apr 27, 2024 IST
वैश्विक साझेदारी से पर्यावरण संकट का समाधान
Advertisement
अरुण मायरा

‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’ (तिलोर) नामक पक्षी का वजूद बचाए रखने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से मुक्त रहने को मानव के मूलभूत अधिकार जितना दर्जा दिया गया है। इस निर्णय ने नीति-निर्माताओं एवं अक्षय ऊर्जा तंत्र विकसित करने वाले निर्माताओं को विस्मित किया है। उनका कहना है कि न्यायाधीश वैज्ञानिक विशेषज्ञों की सलाह को दरकिनार कर रहे हैं और इससे जलवायु परिवर्तन को दुरुस्त करने हेतु बनाए जाने वाले तंत्र की स्थापना में देरी होगी। अदालत ने माना है कि जलवायु परिवर्तन अनचाहे क्षेत्रों में भी न्यायशास्त्र की दखल करवा रहा है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से वजूद पर बने संकट को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और बेढंगे विज्ञान के मौजूदा आदर्शों द्वारा समझा और सुलझाया नहीं जा सकता।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में, प्राकृतिक संपदा इसके मालिक की पूंजी है। राजा और जमींदार भूमि मालिक होते हैं और उनके इलाके की तमाम जलीय, वनीय और मत्स्य संपदा, पशु-पक्षी तक उनकी संपत्ति हैं। उनकी भूमि पर रह रहे और काम करने वाले नौकर या दासों द्वारा हुई उत्पादकता या पैदावार के मालिक भी वही हैं। जो मालिक अपनी मालिकाना भूमि पर घर बनाकर रहते हैं और लोगों से मेल-जोल रखते हैं, जहां उनके नौकर-चाकर पसीना बहाते हैं, वे अपनी निगरानी में वनों और फसलों को फलते-फूलते स्वयं देख सकते हैं। परंतु जो जमींदार अन्यत्र रहते हैं उन्हें कोई परवाह नहीं होती। उन्हें तो केवल मुनाफे से मतलब है फिर चाहे भूमि सूखाग्रस्त हो या बाढ़ग्रस्त, न ही नौकरों की मुश्किलों से कोई सरोकार होता है।
वस्तु मंडियों का उद‍्भव, जहां पर लाए गए पशु, खेतों में उगी फसलें, लकड़ी और खनिज इत्यादि को, व्यापारियों द्वारा तय भावों पर, मुद्रा के लेन-देन से, खरीदा-बेचा जाता है, यह ढंग प्राकृतिक पूंजी को वित्तीय पूंजी में तब्दील करता है। वित्तीय बाजारों ने पूंजीपतियों का नया वर्ग तैयार कर दिया, जिन्हें जमीनी हकीकतों की जानकारी देहात में न बसने वाले जमींदारों से भी कम होती है। वे दुनिया की स्थिति का आकलन तालिकाओं (चार्ट) या डाटा से करते हैं कि किस वस्तु या शेयर का भाव मंडियों और स्टॉक बाजारों में ऊपर चढ़ा या गिरा। जब देहात से निकलकर कोई बंदा कारखानों में बतौर मजदूर काम करने लगता है तो वहां उसका मेहनताना काम के घंटों और इस दौरान दिखाई कारगुजारी के मुताबिक मिलता है। कारखाने के मालिक के लिए उसका कौशल और श्रम भी एक खरीदने लायक वस्तु भर है।
अर्थ-व्यवस्था और न्याय-शास्त्र में जायदाद पर हक आदिकाल से एक अधिकार है। मानवाधिकार को मान्यता तो कहीं बहुत बाद में जाकर मिली, जिसकी प्राप्ति राजनीतिक आंदोलन-अधिकांशतः हिंसा के बाद हुई। उद्देश्य था दासता खत्म करना, उचित मजदूरी पाना और काम करने के लिए सुरक्षित माहौल बनवाना। ‘गिग वर्क’ व्यवस्था श्रम को वस्तु में बदलने का 21वीं सदी का एक तरीका है, जिसमें केवल जरूरत पड़ने पर कामगार की सेवाएं लेना, जो काम हुआ उसी का मेहताना देना और अन्य किसी किस्म की कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती, यह व्यवस्था मालिकान को तो खूब रास आती है लेकिन आम लोगों के लिए खराब है।
गारेट हार्डिन की ‘ट्रेजेडी ऑफ द कॉमन्स’ नामक थ्योरी निजीकरण की विचारधारा को रेखांकित करती है। इस विचार या वाद में, जो सार्वजनिक संपत्ति साझी होती है उसकी देखभाल की जिम्मेवारी कोई नहीं उठाता। अतएव, सार्वजनिक और साझी संपत्ति को निजी हाथों को सौंप दिया जाए क्योंकि वे अधिक मुनाफा बनाने की चाहना से प्रेरित होकर अपने-अपने हिस्से का प्रबंधन अच्छी तरह करेंगे। वैश्विक पर्यावरण, जो कि सबका साझा है, उसको पहुंचा नुकसान विश्व-स्तरीय उभयनिष्ठ संकट बन गया है। इसका हल संपत्ति का आगे निजीकरण करके नहीं निकल सकता। ‘वैश्विक साझेदारी का वायदा’ ध्येय की प्राप्ति को प्रबंधन के नए सिद्धांतों की जरूरत है।
फ्रांसिस बैकॉन ने 17वीं सदी में यूरोपियन ज्ञानोदय के जन्म पर गर्व करते हुए कहा था कि अब विज्ञान मनुष्य को बेलगाम प्रकृति पर नियंत्रण पाने की ताकत प्रदान करेगा। भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव-विज्ञान में हुई नवीनतम खोजों ने मानव के पदार्थवादी फायदे हेतु पृथ्वी की संपदा का दोहन करने के ताकतवर औजार प्रदान किए जिसके चलते तकनीकी रूप से विकसित राष्ट्रों के नागरिकों का उच्च जीवन स्तर बाकियों के लिए ईर्ष्या बना। लेकिन अतिशयी दोहन ने पृथ्वी की सेहत को नुकसान पहुंचाया है। तकनीकी श्रेष्ठता के दर्प से चूर मानव ने हमारे ग्रह के पर्यावरण संतुलन और लोगों के आपसी सौहार्द्र की सततता को नष्ट कर डाला।
आधुनिक विज्ञान ने जटिल प्राकृतिक तंत्र को छोटी-छोटी श्रेणियों में बांटकर, हरेक के लिए विशेषज्ञता आधारित विज्ञान का विकास करना शुरू किया ताकि छोटी से छोटी बारीकी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हो। किंतु यह तरीका अंधों द्वारा हाथी की व्याख्या करने वाली कहानी जैसा है। समग्रता के परिपेक्ष में कोई नहीं देख रहा। आधुनिक दवा खोजकर्ताओं ने दवाएं और शरीर के विभिन्न अंगों को दुरुस्त करने के लिए सर्जरी के बकमाल तरीके खोजे हैं। किंतु उपचार विधि में अंतर्निहित दुष्परिणामों से प्रभावित हुए अन्य अंगों से रोगी की हालत और बिगड़ भी जाती है। बेहतर स्वास्थ्य के लिए, पूरे शारीरिक तंत्र और मानसिकता की समझ रखने वाले चिकित्सक होना लाजिमी है।
पिछली सदी में अर्थतंत्र का सरोकार बाकी सामाजिक विज्ञान से टूट गया, हर कोई अपनी-अपनी विशेषज्ञता वाले कूपों में समा गया। सकल घरेलू उत्पादक बढ़ाने के वास्ते अर्थशास्त्री प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों पर ध्यान केंद्रित करने लगे। अर्थशास्त्रियों को यह तो पता है कि आर्थिकी का आकार कैसे बढ़े किंतु वृद्धि युक्त अर्थव्यवस्था में सबका हिस्सा कैसे सुधरे और प्राकृतिक स्रोतों की सततता बरकरार रहे, यह इल्म नहीं है।
आधुनिक वैज्ञानिक रुख को उन शक्तियों को समझ नहीं है जो परस्पर रूप से पैदा होती हैं और जिनके बीच कारकों और प्रभावों को लेकर चक्रीय नाता है। वे अर्थशास्त्री जो मानव विकास सूचकांक में सुधार लाने के हेतु स्रोतों की वृद्धि करने से पहले उच्च सकल घरेलू उत्पाद बनाने की वकालत करते हैं और जिनके लिए प्राकृतिक स्रोतों की सततता कायम रखना बाद की बात है, वे यह देखने में असफल हैं कि आर्थिक वृद्धि के लिए मानव विकास एवं प्राकृतिक स्रोत की सततता सदा से पूर्व-शर्त और नींव रही है। मिट्टी, जल तंत्र और वनस्पति, पशु, पक्षियों एवं कीटों की विभिन्न प्रजातियों सहित मनुष्य भी प्रकृति के जटिल ढांचे का एक हिस्सा मात्र है। सतततापूर्ण विकास के लिए सबकी भलाई संरक्षित होना जरूरी है। संरक्षणवादी जो व्यवस्था के केवल एक हिस्से पर ही ध्यान केंद्रित किए हुए हैं, वे या तो अधिक हरियाली की वकालत करते हैं या फिर किसी एक प्रजाति को बचाने की जैसे कि बाघ। वे भी व्यवस्था को संपूर्ण समग्रता के साथ रखकर नहीं देखते। ऐसे लोग वनों और बाघों को बचाने के लिए स्थानीय वनवासियों को जंगलों से बाहर निकलवाना चाहते हैं, वे यह नहीं देखते कि वहां पर मनुष्य बतौर प्रजाति प्रकृति का एक अभिन्न अंग हैं।
जटिल तंत्र को केवल विभिन्न नज़रियों का समावेश कर समझा जा सकता है। कानून का शासन और त्वरित न्याय वाले मुल्क वित्तीय निवेशकों और नागरिकों को आकर्षित करते हैं। सुशासन और सबके लिए न्याय के लिए जरूरत है उन शासकों की जो निरंतर लोगों की सुनें। अपनी विधा में महारत किंतु संकुचित दायरा रखने वाले विशेषज्ञ और अदालतें नागरिकों में सर्वसम्मति नहीं बना सकते। समाज को भी चाहिए कि जिस किस्म का तंत्र वह अपने लिए चाहता है, उसकी प्राप्ति के लिए सहयोग से सर्वसम्मति बनाये।

Advertisement

लेखक योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement