‘गीता जीवन’ ही जीने की कला का सर्वश्रेष्ठ साधन
जब हमारे भीतर स्थित भगवान श्रीकृष्ण रूपी परमात्म-शक्ति अथवा सद्गुरु हमें द्वंद्वपूर्ण परिस्थिति से उबारने का प्रयास करते हैं तो हम अर्जुन की तरह प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। हम अपने भीतर नित्य ही युद्धरत्ा रहते हैं। हमारे भीतर प्रश्नों और समस्याओं की भरमार है, जिनके समाधान के लिए हमें कहीं और नहीं, बल्कि श्रीमद्भगवद् गीता की शरण में जाना होगा।
चेतनादित्य आलोक
आज से लगभग 5160 वर्ष पूर्व द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव और पांडव के बीच भीषण युद्ध आरंभ होने से ठीक पहले ‘पार्थ’ यानी अर्जुन को जीवन और जगत् के विविध पहलुओं से जुड़ा अब तक का दुर्लभतम् और महानतम् ‘महाज्ञान’ प्रदान किया था। यह महाज्ञान श्लोकबद्ध था, जिसे महर्षि वेदव्यास जी ने बाद में ‘श्रीमद्भगवद् गीता’ के रूप में लिपिबद्ध किया। शास्त्रों के अनुसार भगवान ने जिस दिन अर्जुन को यह ज्ञान प्रदान किया था, उस दिन मार्गशीर्ष यानी अगहन महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से निःसृत होने के कारण इस अद्भुत महाज्ञान रूपी महाग्रंथ श्रीमद्भगवद् गीता के प्राकट्य अथवा अवतरण दिवस के रूप में प्रत्येक वर्ष मार्गशीर्ष महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को ‘गीता जयंती’ का आयोजन बड़े ही धूम-धाम एवं भक्ति-भाव के साथ किया जाता है। इस वर्ष मार्गशीर्ष महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि 22 दिसंबर की सुबह 8ः15 पर आरंभ होकर 23 दिसंबर की प्रातः 7:10 पर समाप्त होगी। इस दिन दुनियाभर में सनातन धर्म के अनुयायियों एवं श्रीकृष्ण भक्तों द्वारा पवित्र महाग्रंथ श्रीमद्भगवद् गीता की 5160वीं जयंती मनाई जाएगी।
गीता जयंती का दिन हमें पवित्र महाग्रंथ श्रीमद्भगवद् गीता के अध्ययन, श्रवण एवं स्वाध्याय के लिए प्रेरित करता है, ताकि हम भी इस अमृत रूपी ‘ज्ञान-गंगा’ का पान कर अपना जीवन कृतार्थ कर सकें। प्रत्येक वर्ष यह दिन हमें अनुभूति कराता है कि इस अद्भुत ज्ञान-गंगा का पान किए बिना हमने एक और वर्ष व्यर्थ ही गवां दिया। अच्छा हो, यदि यह दिवस प्रेरणा के रूप में संपूर्ण मानव जाति, विशेषकर भारतीयों का संबल बन सके और दुनियाभर के कोटि-कोटि जनों की भांति हम सब भी इस महामृत-पान का सौभाग्य प्राप्त कर सकें।
सभी धार्मिक-आध्यात्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों में श्रीमद्भगवद् गीता का स्थान सदा से सर्वोपरि रहा है। इसके कुल 18 अध्यायों एवं 700 श्लोकों में गुंथित महाज्ञान से विमुख अथवा अनभिज्ञ होना जीवन के प्रधान उद्देश्यों एवं उपलब्धियों से वंचित रहना है, क्योंकि इस महाग्रंथ में जीवन और जगत् के सभी महत्वपूर्ण सवालों और उनके जवाबों का समावेश है। इसमें हमारे जीवन के नित्य प्रति के तमाम प्रश्नों, समस्याओं और उनके समाधानों का वर्णन है।
हमारा मन सदा ही क्रोध, भय, शोक, घृणा, द्वेष, शंका, खुशी, दुःख, प्रसन्नता, उदासी, उत्थान, पतन आदि में निरत रहता है। इसके कारण हम अर्जुन की तरह सदैव द्वंद्व में जीते हैं। यही नहीं, जब हमारे भीतर स्थित भगवान श्रीकृष्ण रूपी परमात्म-शक्ति अथवा सद्गुरु हमें इस द्वंद्वपूर्ण परिस्थिति से उबारने का प्रयास करते हैं तो हम अर्जुन की तरह प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। इस प्रकार देखा जाए तो हम अपने भीतर नित्य ही युद्धरत रहते हैं। हमारे भीतर प्रश्नों और समस्याओं की भरमार है, जिनके समाधान के लिए हमें कहीं और नहीं, बल्कि श्रीमद्भगवद् गीता की शरण में जाना होगा।
गौरतलब है कि इस महाग्रंथ में निहित महाज्ञान आज भी उतना ही सार्थक एवं प्रासंगिक है, जितना कि आज से 5160 वर्ष पूर्व था। श्रीमद्भगवद् गीता कलियुग में मनुष्यों के लिए अमृत के समान है। महाभारत के महा-संग्राम के गर्भ से निकली श्रीमद्भगवद् गीता में एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग की बहुत सुंदर चर्चा है। इसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के संबंध में विस्तृत वर्णन है। यह जीवन जीने की कला का सर्वश्रेष्ठ साधन है, जो हमें कभी पथभ्रष्ट नहीं होने देता। यह भारतीय धर्म और दर्शनशास्त्र के अतिरिक्त उस अध्यात्म-विद्या का भी स्थापित और मान्य ग्रंथ है, जिसने मनुष्य जाति को आत्मा की अमरता का संदेश देकर कर्मशील जीवन की आधारशिला रखी। श्रीमद्भगवद् गीता हमें पुरानी मान्यताओं, जड़वत् हो चुकीं प्रथाओं, अंधविश्वासों, जीवन की विद्रूपताओं, ऐतिहासिक भूलों आदि से पृथक एक ऐसे वृहत्तर संसार में ले जाती है, जहां सुंदर भविष्य है, विश्वास की गहरी जड़े हैं, आशा की अखंड ज्योति है और जीवन के उत्कर्ष की अगणित संभावनाएं मौजूद हैं। यह हमें स्वप्निल दुनिया से निकालकर जीवन की वास्तविकता से परिचित कराती है।