प्रेम का वरदान
जम्बूद्वीप के विभिन्न भागों से पांच गृहस्थ गृह-कलह से तंग आकर घर-गृहस्थी से पलायन कर गए। कई तीर्थों से होते हुए वे संयोग से हरिद्वार में मिले और तपस्या करने का संकल्प लेकर बद्री-केदार की तरफ निकले। आध्यात्मिक जीवन का चोला ओढ़ लेने के बावजूद उनकी लिप्साएं गाहे-बगाहे उफन पड़ती थी। थके-हारे एक वट वृक्ष के तले बैठे वे नव-संन्यासी आपस में बात करने लगे। पहले ने कहा कि जब हम तपस्या करेंगे और ईश्वर प्रकट होंगे तो हम क्या वरदान मांगेंगे? पहला बोला- जंगल में पहले अन्न मांगेंगे। दूसरा बोला- बल मांगेंगे। तीसरा बोला- विवेक मांगेंगे। हर कार्य के निष्पादन में बुद्धि की अावश्यकता होती है। चौथा बोला- ये वस्तु तो सांसारिक हैं। हम आत्मशांति मांगेंगे। तब पांचवां बोला- हम स्वर्ग क्यों नहीं मांगेंगे? उसमें तो हमारी सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाएंगी। तब उस वट वृक्ष पर वर्षों से साधना कर रहे एक संत नीचे उतरकर बोले- तुम लोगों से न कोई तपस्या होगी और न कोई उपलब्धि हासिल होगी। यदि तुम लोगों का उच्च मनोबल होता तो तुम लोग संसार छोड़कर न भागते। मैं तो बिना मांगे वरदान देता हूं प्रेम। समस्त प्राणिमात्र से प्रेम करना सीखो। प्रेम से तुम सब कुछ पा सकते हो। यह सुनकर पांचों वापस अपने घरों को लौट गए और प्रेम से मानवमात्र की सेवा में जुट गए।
प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा