धर्म परिवर्तन के बाद आरक्षण का लाभ धोखाधड़ी : सुप्रीम कोर्ट
नयी दिल्ली, 27 नवंबर (एजेंसी)
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि बिना किसी वास्तविक आस्था के केवल आरक्षण का लाभ पाने के लिए किया गया धर्म परिवर्तन ‘संविधान के साथ धोखाधड़ी’ है।
जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस आर. महादेवन ने एक याचिका पर मद्रास हाईकोर्ट के 24 जनवरी के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें ईसाई धर्म अपना चुकी एक महिला को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया गया था। महिला ने बाद में आरक्षण के तहत रोजगार का लाभ प्राप्त करने के लिए हिंदू होने का दावा किया था।
जस्टिस महादेवन ने पीठ के लिए 21 पृष्ठ का फैसला लिखा। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कोई व्यक्ति किसी अन्य धर्म को तभी अपनाता है, जब वह वास्तव में उसके सिद्धांतों, धर्म और आध्यात्मिक विचारों से प्रेरित होता है। उन्होंने कहा, ‘अगर धर्म परिवर्तन का मुख्य मकसद दूसरे धर्म में वास्तविक आस्था होने के बजाय आरक्षण का लाभ प्राप्त करना है तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसी गलत मंशा रखने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ देने से आरक्षण नीति के सामाजिक लोकाचार को ही क्षति पहुंचेगी।’
अदालत ने कहा, पीठ के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य से स्पष्ट पता चलता है कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म को मानती थी और नियमित रूप से गिरजाघर में जाकर सक्रिय रूप से इस धर्म का पालन करती थी। पीठ ने कहा, ‘इसके बावजूद वह हिंदू होने का दावा करती है और नौकरी के लिए अनुसूचित जाति समुदाय का प्रमाण-पत्र मांगती है। इस तरह का दोहरा दावा अस्वीकार्य है।’ शीष अदालत ने कहा कि महिला ईसाई धर्म में आस्था रखती है और महज नौकरी में आरक्षण का लाभ उठाने के उद्देश्य से वह हिंदुत्व का अब तक पालन करने का दावा करती है।
हिंदू पिता और ईसाई माता की संतान सेल्वरानी को जन्म के कुछ समय बाद ही ईसाई धर्म की दीक्षा दी गई थी, लेकिन बाद में उन्होंने हिंदू होने का दावा किया। सेल्वरानी के पिता वल्लुवन जाति से थे, जो अनुसूचित जाति में शामिल है और उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था। पीठ ने कहा कि अनुसूचित जाति के लाभ का दावा करने के लिए उन्हें पुनः धर्मांतरण तथा अपनी मूल जाति द्वारा स्वीकार किए जाने का ठोस सबूत देना होगा, जो इस मामले में नहीं दिया गया।