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अविभाजित भारत को संवारने वाले लाहौर के नगीने

06:40 AM Aug 15, 2024 IST

डॉ. चन्द्र त्रिखा
हमारे भारतीय उपमहाद्वीप की वित्तीय जिंदगी में कुछ ऐसी शख्सियतें भी हुई हैं जिन्हें धीरे-धीरे हम भूलते जा रहे हैं। सरदार दयाल सिंह मजीठिया का नाम यदि अब भी आदर के साथ लिया जाता है तो उसका मुख्य कारण यही है कि लाहौर के इस शख्स ने पत्रकारिता और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ ठोस पहलकदमियां की थीं। दयाल सिंह कॉलेज (लाहौर, करनाल व दिल्ली) व दयाल सिंह लाइब्रेरी समेत कई संस्थाएं अब भी इस महान शख्सियत को दुआएं देती हैं।
इसी शृंखला में सर गंगाराम का नाम आता है, जिन्हें ‘मॉडर्न लाहौर’ का निर्माता माना जाता है। उनका मुख्य कर्म-क्षेत्र अस्पताल, मेडिकल कॉलेज व अनूठे भवनों का निर्माण था। लाहौर की जि़ंदगी में सर गंगाराम ऐसे रच-बस गए थे कि मंटो सरीखे लेखक ने भी अपनी एक कहानी में उन्हें पात्र बनाया।
वैसे लाहौर एवं अविभाजित पंजाब के आर्थिक विकास में लाला लाजपत राय का भी विशिष्ट योगदान था, मगर उनका स्वाधीनता सेनानी एवं राष्ट्रभक्त वाला पक्ष उनकी अन्य भूमिकाओं पर हावी हो गया। वे स्वाधीनता सेनानी तो थे ही, इसके अलावा बैंकिंग व बीमा क्षेत्र में उन्होंने लाहौर में अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की थी। वहां की लक्ष्मी इंश्योरेंस कंपनी, पंजाब नेशनल बैंक व कुछ अन्य बड़े व्यावसायिक संस्थानों में भी लाला लाजपत राय की विशेष भूमिका थी। पत्रकारिता और वकालत के क्षेत्र में भी उन्हें पहली कतार में रखा जाता था। इसी शृंखला में महाशय कृष्ण, लाला जगत नारायण और महाशय आनंद स्वामी के नाम भी पत्रकारों-प्रकाशकों की श्रेणी में आते हैं।
इसी क्रम में एक अन्य भारतीय उद्यमी शामिल हैं- लाला हरकिशन लाल। डेरा गाज़ी खान के एक कस्बे लैय्या में वर्ष 1864 में जन्मे लाला हरकिशन की जि़ंदगी में ऐसे उतार-चढ़ाव आए कि इन्हें ‘अर्श से फर्श’ और फिर ‘फर्श से अर्श’ तक की जि़ंदगी का महानायक माना गया। लाला हरकिशन लाल की शिक्षा-दीक्षा गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से हुई थी। बाद में अपनी मेधा के बल पर एक छात्रवृत्ति लेकर वे ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज में चले गए। जहां गणित विषय पर अपने अध्ययन में उन्हें ‘विशिष्ट’ छात्र घोषित किया गया। वहां से भारत लौटने पर उन्हें गणित के प्राध्यापक के रूप में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में नौकरी मिली।
इसी बीच सरदार दयाल सिंह मजीठिया की प्रेरणा से उन्होंने वित्तीय प्रबंधन के क्षेत्र में प्रवेश किया। उन्हें उन दिनों पंजाब नेशनल बैंक में भी ऑनरेरी सेक्रेटरी का पद दिया गया। उसी वर्ष लाला हरकिशन लाल ने लाहौर में ही भारत इंश्योरेंस कंपनी की स्थापना की वहीं सरदार दयाल सिंह मजीठिया ने उन्हें अपने ‘द ट्रिब्यून ट्रस्ट’ में भी ट्रस्टियों में शामिल कर लिया।
इसी दौरान उद्यमी लाला हरकिशन लाल ने खुद को पूरी तरह औद्योगिक संस्थानों व व्यापारिक संस्थानों के कारोबार में खपा दिया। ईर्ष्या के कारण उन्हें ब्रिटिश शासन के कुछ अधिकारियों, कुछ धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों व कुछ आर्यसमाजी नेताओं के विरोध का भी सामना करना पड़ा। विरोधियों ने उनके बैंक खातेदारों में भी अफवाह फैला दी कि उनकी जमा पूंजी कभी भी खतरे में पड़ सकती है। उधर, वर्ष 1919 में उसे कुछ अंग्रेज अधिकारियों की शिकायत पर राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ महीने जेल में रहना पड़ा। रिहाई के बाद लाला जी अपने विरोधियों की साजि़शों से तंग आकर बीमार पड़ गये और फिर उन्होंने प्राण त्याग दिये। बाद में उसके सुपुत्र व प्रख्यात वकील एवं लेखक केएल गाबा ने एक पुस्तक भी लिखी ‘सर डगलस यंग’ज़ मैग्ना कोर्टा’। उन्हें भी कुछ समय सींखचों के भीतर ही रहना पड़ा। इन परिश्रमी हरकिशन जी की ‘लाहौर इलेक्ट्रिक सप्लाई’ कंपनी भी चर्चा में रही थी। उसने लाहौर में आटा मिलें भी लगाई, ईंटों के भट्ठे भी स्थापित किए, साबुन के कारखाने लगाए और बर्फ की फैक्ट्रियां व कॉटन-वीविंग मिलें भी लगाईं। एक निर्धन क्षत्रिय परिवार के इस परिश्रमी उद्यमी के अनेक संस्थानों के खंडहर आज भी लाहौर में मौजूद हैं।
पाकिस्तान के सर्वाधिक पुराने व बड़े शहर लाहौर में चंद ऐसी शख्सियतें थीं जिनके कर्ज तले पूरा पाक-पंजाब दबा रहा है। महाराजा रणजीत सिंह के बाद पांच अन्य शख्सियतें ऐसी थीं जो इस शहर की रूह मानी जाती थीं। इनमें सरदार दयाल सिंह मजीठिया, सर गंगाराम, बुलाकी शाह, छज्जू राम भाटिया, हरकिशन लाल व लाला लाजपत राय प्रमुख थे। सर गंगा राम ने यहां की आधी ऐतिहासिक इमारतों के अलावा एक विशाल अस्पताल का निर्माण कराया था। ब्रह्मसमाजी सरदार दयाल सिंह मजीठिया को ‘द ट्रिब्यून’ समाचार-पत्र की शुरुआत व अन्य अनेक सामाजिक संस्थाओं को संरक्षण देने का श्रेय जाता है। स्वर्ण-व्यापारी छज्जू राम भाटिया का ‘छज्जू का चौबारा’ अपने समय का एक विलक्षण इतिहास समेटे हुए है। मगर भारत-पाक विभाजन के साथ सर्वाधिक खून-खराबे व दंगों के गवाह सेठ बुलाकी शाह ही रहे। दंगइयों ने उस क्षेत्र के मंदिरों व हिन्दू परिवारों पर हल्ला बोलने के साथ ही बुलाकी शाह की हवेली पर धावा बोला था। बीच बाज़ार में एक विशाल हवेली है जो हवेली बुलाकी शाह के नाम से प्रसिद्ध है। इसका एक नाम कैमला बिल्डिंग भी था। प्राप्त साक्ष्यों व दीवारों पर दर्ज तारीखों के अनुसार यह हवेली 17 अप्रैल, 1929 में बनी थी। इसके सामने ही लाहौर का प्रसिद्ध ‘पानी वाला तालाब’ था जो वर्ष 1883 में बना था।
मैं जब वर्ष 1988 में एक बार इस हवेली की तरफ गया तो वहां पर एक डॉक्टर अपना क्लीनिक चलाता था और वहीं उसका आवास भी था। डॉक्टर ने बताया था कि इस गुमटी बाज़ार को पुराने वक्तों में ‘गली काली माता’ भी कहा जाता था। उस हवेली में एक समय बुलाकी शाह नामक एक हिन्दू व्यापारी रहता था और उसी ने अपनी अकूत दौलत से एक हवेली को सजाया-संवारा था। इसी के साथ सटा क्षेत्र कूचा-हनुमान भी कहलाता था। यहीं पर स्थित था काली माता का प्रसिद्ध मंदिर और ‘शिवाला पंडित राधा कृष्ण’। मूल रूप में यह सारा क्षेत्र हिन्दू बहुल था और कई छोटे-छोटे मंदिर थे। दुकानदार सुबह कारोबार आरंभ करने से पहले यहीं पंडित जी से तिलक कराने व मूर्तियों के समक्ष शीश नवाने आते थे। इसी क्षेत्र में बुलाकी शाह का आर्थिक साम्राज्य फैला हुआ था। उसकी हवेली में अक्सर पाक-पंजाब व सिंध क्षेत्र से आए किसानों व मध्यम दर्जे के ज़मीदारों की भीड़ लगी रहती थी। कहा जाता था कि आधे से ज़्यादा पंजाब बुलाकी शाह का कर्जदार था। उसकी बहियों में कुछ बड़े-बड़े ज़मीदारों के भी ‘राज़’ दर्ज थे। कहा यही जाता है कि उस क्षेत्र में सर्वाधिक रक्तपात का एक उद्देश्य उन बहियों को नष्ट करना भी था, जिनमें बड़े-बड़े लोगों के लेन-देन के राज़ दफन थे। उन दिनों सर्वाधिक खूनखराबा इसी क्षेत्र में हुआ था। एक कारण था हिन्दू-बहुल क्षेत्र होना तो दूसरा यह भी था कि बुलाकी शाह की बहियों को नष्ट किया जाए। कर्जदारों में यही चर्चा थी कि अगर बहियां बच गई तो बुलाकी शाह की औलादें उन्हीं बहियों के आधार पर अपने दबंगों के माध्यम से वसूलियां शुरू कर देंगी। दूसरा कारण था कि बहियों में बड़े-बड़े ऐसे राजनीतिज्ञों के भी अंगूठों के निशान या हस्ताक्षर थे जो मुस्लिम लीग के बड़े पदाधिकारी बन गए थे या मुहम्मद अली जिन्ना के करीबी थे।
एक दिलचस्प व दुखद पहलू अदब के क्षेत्र से भी जुड़ गया था। इसी गुमटी बाज़ार में अमृता प्रीतम का आवास भी था। अमृता किसी भी सूरत में लाहौर नहीं छोड़ना चाहती थीं। मगर उन्होेंने एक बार अपने आवास की पहली मंजि़ल से एक दहशतज़दा औरत पर वहशियाना हमले का भयावह मंज़र देख लिया तो उसी पल फैसला ले लिया कि वह ऐसे हैवानी माहौल में अब रह नहीं पाएंगी। इसके बाद उन्होंने अपने एक संबंधी की मदद से दिल्ली जाने वाली भीड़भरी रेल पकड़ ली और उसी रेल में उन्होंने एक फटे-पुराने कागज पर अपनी सर्वाधिक चर्चित नज़्म लिखी थी, ‘अज आखां वारिस शाह नूं/कितों कब्रां विचों बोल...’।
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लेखक हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के उर्दू प्रकोष्ठ के निदेशक हैं।

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