पंचमेल से बीरबल की खिचड़ी तक
संतोष दिवाकर
पूस मास आते ही हमारा देश खिचड़ी के मूड में आ जाता है और चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक दलों में खिचड़ी पकने लगती है। देश के विभिन्न भागों में कहीं मकर संक्रांति, जिसमें हम लोग खिचड़ी खाते हैं, तो कहीं लोहड़ी, तो कहीं पोंगल, तो कहीं बिहु पर्व मनाया जाता है।
खिचड़ी, पर्व के रूप में तो वर्ष में एक बार ही आती है परंतु खिचड़ी तो रसोई से लेकर परिवार तक में सालों भर पकती रहती है। जैसे कोई दल चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं ला पाता है तो अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाता है तो ऐसे सरकार को खिचड़ी सरकार कहते हैं। जिस तरह खिचड़ी में चावल, दाल, सब्जी आदि अपना अस्तित्व खोकर खिचड़ी को स्वादिष्ट बनाते हैं, और चावल, दाल, सब्जियां एवं अन्य मसाले एकता के सूत्र में बंध जाते हैं तो खिचड़ी नाम से जानी जाती है।
वैसे ही जैसे जेपी की अगुआई में वर्ष 1977 में कुछ दलों को मिलाकर एक दल बनाया गया कि वो अपने पुरानी विचारधारा को छोड़कर एक नई सोच के साथ नए दल में रहेंगे। लेकिन खिचड़ी और दल में यही अंतर है, खिचड़ी में चावल, दाल, सब्जी आदि को अलग नहीं किया जा सकता जबकि नया राजनीतिक दल सत्ता के दलदल में फंस गया और सभी अलग-अलग हो गए। खिचड़ी सरकार और खिचड़ी में बड़ा फर्क है, खिचड़ी रसायन शास्त्र की भाषा में रासायनिक परिवर्तन है जिसमें चावल और दाल को अलग नहीं किया जा सकता है जबकि खिचड़ी सरकार भौतिक परिवर्तन है जब चाहे हर दल अपनी चावल-दाल की पोटली लेकर कभी भी अलग हो जा सकता है।
यूं खिचड़ी तो अपने देश का अघोषित राष्ट्रीय व्यंजन है और आज की राजनीति खिचड़ी की राजनीति हो गई है। दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिए की तर्ज पर सत्तापक्ष-विपक्ष के नेता एक साथ खिचड़ी खाते है। कहीं-कहीं तो इसी बहाने खिचड़ी पकाने का सुअवसर मिल जाता है।
खिचड़ी सिर्फ खाने की ही चीज नहीं है बल्कि यह पकाने की भी चीज है, सास-पुतोह, ननद- भौजाई के बीच खिचड़ी का पकना तो आम बात है, यदि कहीं नहीं पक रही है तो वो खास बात है। संत कबीर की भाषा को स्व. श्याम सुंदरदास ने पंचमेल खिचड़ी कहा है। खिचड़ी कहीं बने उसमें दाल और चावल जरूर रहता है लेकिन छत्तीसगढ़ में महुआ के आटे से खिचड़ी बनाई जाती है जिसे असुर खिचड़ी कहा जाता है।
बीरबल की खिचड़ी की कहानी तो जगत प्रसिद्ध है, किस तरह बीरबल ने अकबर को उनकी गलती का अहसास कराया और यह अहसास बीरबल ने खिचड़ी पकाने का स्वांग कर ही किया। भारतीय राजनीति की खिचड़ी का निश्चित समय नहीं होता है, जब चुनाव नजदीक आता है तो खिचड़ी पकनी शुरू हो जाती है। अभी तो किसी की खिचड़ी में 26 तरह का मसाला है तो किसी में 36 तरह का; देखना है कि 24 में 36 वाली खिचड़ी बाजी मारती है कि 26 वाली। लेकिन हम कब खिचड़ी की तरह एक होंगे जहां विघटनकारी शक्तियां हमें एक-दूसरे से अलग न कर सकें?