नये भारत का खानपान
हाल ही में सामने आए भारतीयों के घरेलू उपभोग सर्वेक्षण के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। जिससे पता चलता है कि आज के भारत में लोगों द्वारा खाद्यान्न की तुलना में दूध, फल और सब्जियों पर ज्यादा खर्च किया जा रहा है। वहीं ग्रामीण व शहरी परिवारों में अंडे, मछली और मांस पर भी खर्च बढ़ा है। इसको लोगों की आय में वृद्धि के बाद खानपान की आदतों में आए बदलाव के रूप में देखा जा रहा है। अब ये देखना दिलचस्प है कि वे किस प्रकार के खाद्य पदार्थों पर अधिक खर्च कर रहे हैं। यहां विश्लेषण भी जरूरी है कि यह परिवर्तन लोगों की खानपान की रुचियों में आए बदलाव का प्रतीक है या फिर ये आदतें बाजार की शक्तियों के प्रभाव में बदली हैं। दरअसल, हालिया किसान आंदोलन में किसानों की बड़ी मांग खाद्यान्नों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने की रही है। लेकिन बाजार में विस्तार डेयरी, बागवानी, पशुपालन, मत्स्य पालन और सब्जियों के उत्पादन को मिल रहा है, जो कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में नहीं आते। दरअसल, वर्ष 2022-23 के सामने आए नवीनतम घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण यानी एचसीईएस में भारतीयों के खाद्य बजट में खाद्यान्नों के खर्च में गिरावट की ओर इशारा किया है। जिसमें गेहूं, चावल और चीनी पर होने वाले खर्च में कमी देखी गई है। यही रुझान कुछ बदलावों के साथ ग्रामीण उपभोक्ताओं की खानपान की आदतों में आ रहे बदलाव के रूप में भी सामने आता है। इस प्रवृत्ति को एक जर्मन विशेषज्ञ के सिद्धांत के रूप में भी दर्शाया जा रहा है जिसमें कहा गया है कि आय बढ़ने के साथ लोगों का खाद्यान्नों पर खर्चा कम होता है और फल, सब्जी, डेयरी उत्पादों को तरजीह दी जाती है। असल में, लोगों के व्यवहार में यह बदलाव कैलोरी प्रदान करने वाले खाद्य पदार्थों से लेकर प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों वाले खाद्य पदार्थों के उपभोग के नजरिये से भी हो रहा है।
दरअसल, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा किये गए नवीनतम घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकडों से स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय में खाद्यान्न की हिस्सेदारी 2022-23 में घटकर 46 फीसदी के करीब हो गई है जो वर्ष दो हजार में साठ फीसदी के करीब थी। यूं तो शहरी इलाकों में भी खाद्यान्न पर होने वाले खर्च में गिरावट आई मगर वह ग्रामीण भारत की तुलना में कम है। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में खाद्यान्न उपभोग में अनाज और दालें कम हो गई हैं। दूसरी ओर दूध पर होने वाला खर्च में इतनी वृद्धि हुई हुई है कि अनुमान लगाया जा रहा है कि यह जल्दी ही अनाज व दालों के संयुक्त खर्च से अधिक हो जाएगा। कमोबेश यही स्थिति फलों, सब्जियों व विटामिन व खनिज से भरपूर खाद्य पदार्थों पर लागू होती है, जिनके प्रति लोगों का रुझान बढ़ रहा है। यही वजह है कि दालों के मुकाबले फलों पर ज्यादा खर्च हो रहा है। चौंकाने वाली बात यह भी है कि बाजार में पशुधन, मत्स्य पालन व बागवानी के उत्पादों की हिस्सेदारी बढ़ रही है, जो कि एमएसपी के लाभों से वंचित हैं। निस्संदेह, इसमें बाजार के मुनाफे की भूमिका को भी देखा जा रहा है। यहां रुझान वनस्पति प्रोटीन की तुलना में पशु प्रोटीन की ओर भी देखा जा रहा है। इसके साथ ही घरेलू उपभोग व्यय बताता है कि नई पीढ़ी के रुझान के मद्देनजर प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों, पेय पदार्थों व पके तथा डिब्बाबंद भोजन पर खर्च बढ़ा है। दरअसल, आय बढ़ने पर विकसित देशों में भी लोगों का खाद्यान्न पर व्यय कम हो जाता है। वे भोजन में गुणवत्ता वाली चीजों को शामिल करने को प्राथमिकता देते हैं। वे अनाज, चीनी व दालों के मुकाबले दूध, मछली, अंडा ,मांस, फल, सब्जियों, पेय पदार्थों व प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को अधिक गुणवत्तापूर्ण मानने लगते हैं। यहां यह भी विचारणीय है कि खाद्यान्न पदार्थों की आदतों में इस बदलाव में क्या मुद्रास्फीति की कोई भूमिका है? इस बाबत विस्तृत अध्ययन की जरूरत महसूस की जा रही है।