पहली रोटी
अली उस्मान बाजवा
‘मां, पहली रोटी मेरी।’ उसने चिरौरी-सी करते हुए चंगेर की तरफ हाथ बढ़ाया।
‘पीछे हट मरजाणीए।’ मां ने गर्म चिमटा उल्टे हाथ से दे मारा और वह ‘सिसक’ कर रह गई। अपने दाहिने हाथ को बाएं हाथ में पकड़े हुए, वह अपनी मां की तरफ बिटर-बिटर देख रही थी।
‘घूर-घूर कर क्या देखे जा रही हो, नज़रें नीची कर, जान ले लूंगी... न कोई शर्म न हया।’ मां ने फुकनी मार कर उपले के दो टुकड़े किए और एक टुकड़े को चिमटे से उठाकर चूल्हे में डाला। मां का जीवन भी फुकनी की तरह था। पूरे परिवार के पेट की ज्वाला शांत करने के लिए वह हर दिन आग जलाती थी, और इन फूंकों में ही उसने अपना जीवन फूंक दिया था, फुकनी की भांति भीतर से खाली। उसका एकमात्र कार्य आग जलाना था, लेकिन वह फूंक-फूंक कर भी उस जलती आग को नहीं बुझा सकती थी।
काला धुआं हमेशा के लिए मां की आंखों में बस गया था। वह बार-बार बहते पानी को अपने दुपट्टे से पोंछती थी और रोटी बनाती जाती थी। कभी-कभी रोटी बहुत फूल कर ढोल बन जाती, तो मां हंस कर कहती, ‘क्या कोई ऐसी रोटी बना सकता है?’ काम के दौरान इसी तरह हंसते-हंसाते उसके घुटने दुखने लगे थे। जोड़ों का दर्द और विभिन्न बीमारियां।
‘तुझे कई बार कहा है कि पहली रोटी वीरे की है। उसे पढ़ने जाना है, देर हो रही है।’
मां ने जब देखा कि बेटी मान नहीं रही है और अड़ कर बैठी है, तो उसने हमेशा की तरह पहली रोटी का फैसला सुनाया।
‘मुझे भी तो स्कूल जाना है और वीरा तो कॉलेज जाता है। मेरे बाद उसका कॉलेज लगता है। और अभी तो वह उठा है, तैयार होगा, तब न रोटी खाएगा!’ उसने अपने नथुने फुला कर मां को सुनाना शुरू कर दिया।
मां ने उपलों के टुकड़ों को अपने हाथों से तोड़-तोड़ कर चूल्हे में डालना शुरू किया। बेटी उठी और जूते और मोजे पहनने लगी।
‘अरी, कामचोर इधर आ, ले मर खा रोटी। भूखे मत जाना, चीर कर रख दूंगी।’
पर वह मुंह फुलाए जूते पहनती रही। बस्ता उठाकर दरवाज़े की ओर चल दी।
मां उठ कर दौड़ी, ‘अरी रुक जा। कहां से आ पैदा हुई मेरे घर, पैसे तो लेती जा।’
मुट्ठी में नोट दबाए मां दरवाज़े से बाहर निकल आवाज़ें लगाती रह गई लेकिन वह गली में भाग गई। मां होंठ भींच कर रह गईं। घर से निकल कर चाचा लंगे की दुकान के पास से गुज़रते समय हमेशा उसे परेशानी होती। उसने दुपट्टा ठीक किया और तेज़-तेज़ कदमों से चलने लगी। चाचा लंगे के कनपटी के पास के बाल सफेद हो गए थे और उनकी एक सुकड़ी टांग तहमद में से लटकती रहती थी। चालीस की उम्र के बाद भी वह अविवाहित था। चाचा लंगे ने उसे घूर कर देखा और उसकी चाल और तेज हो गई।
मुख्य सड़क पर पहुंच कर रिक्शा का इंतज़ार करने लगी। स्कूल जाने वाले लड़के उसके पास से गुज़रते, जोर-जोर से फिल्मी गाने गाते और एक-दूसरे के हाथ पर हाथ मारते। वह धरती की तरफ देखती रहती। उसका जी चाहता कि कोई ओट-सी बन जाए और वह छुप जाए या वह उन सभी को बारी-बारी से पकड़ कर पीट डाले, लेकिन यह तो रोज़ का काम था। रिक्शा चालक ने पास आकर ब्रेक लगाई और वह अपनी सहेलियों के साथ आ बैठी। रिक्शा चालक एक काला और मरियल-सा लड़का था, लेकिन शायद उसे कोई भ्रम था। नाभि तक खींच कर जीन की पैंट पहनता, आधी बांहों वाली बुशर्ट पहनता और बांहों को और भी उमेठ लेता, जिससे उसकी मरियल-सी बांहें पूरी दिखने लगतीं। कॉलर को ऊंचा उठाए रखता और रिक्शा चलाते समय सामने कम देखता और शीशे में पीछे की सवारियों को अधिक देखता। रिक्शा में उसने एक डेक लगा रखा था, जिसमें एक जैसे ही गाने बजते रहते थे। वह रिक्शा से उतर कर स्कूल में घुस जाती और अध्यापिकाओं के डंडों से बार-बार बचते हुए समय बीतता। स्कूल की कैंटीन का लाला बहुत अच्छा था। सभी लड़कियां उसे लाला कहती हैं। लाला पकौड़े देना, लाला नान टिक्की देना, लाला खट्टी इमली, लाला पापड़ का... शोर मचाती रहतीं। वह हर लड़की को प्यार से ‘अच्छा बेटी देता हूं’ कहता। आज फिर उसने अपनी सहेली से नान टिक्की मांग कर खाई। सुबह की बात वह कब की भूल गई थी। वह अपनी मां जैसी नहीं बनना चाहती थी, फिर भी उसकी मां का कुछ-कुछ असर था।
उसकी मां भी जब इस घर में आई थी तो अपनी मां जैसी नहीं बनना चाहती थी। माता-पिता ने फूफी के घर ब्याह दिया। धीरज धर कर इस घर में आ गई। सास, ननद का पता चला। झाड़ू, पोंछा और खाना पकाना उसकी मां ने सिखाया था। मां सुबह मुंह चूम कर उठाती। डांटती भी और प्यार भी खूब करती। सब्ज़ी में नमक, मिर्च की कमी या अधिकता और रोटी को फुलाकर खुश होना उसने अपनी मां से सीखा था। अपने घर में दादी और पिता के व्यवहार को भी देखा था। यहां शुरुआती कुछ दिन ज़रा सुकून भरे थे। उसे चालाकियों का पता ही नहीं था कि घर में खाने-पीने से लेकर इस्तेमाल होने वाली चीज़ों में उसकी सास और ननद क्या-क्या डंडी मारती हैं। उसने कभी नहीं सोचा था कि एक ही घर में रहने वाले लोग एक-दूसरे से छुपा कर खा सकते हैं। उसने अपनी सास को कच्चे अंडे पीते और ननद को को छत्ती से पैसे निकालते देखा था, लेकिन वह चुप रही।
‘चलो जो रब को मंजूर है।’
एक ठंडी आह भर कर वह आलू काटती रहती। चाकू से बने ज़ख्म पर नमक छिड़कने का स्वाद लेती और अपने बाल-बच्चों के पोतड़े धोती। अब उसकी खुद की बेटी जवान हो गई थी लेकिन अब तो शायद ज़माना बदल गया था। बेटी के पास तो इतना समय ही नहीं कि मां के पास बैठ कर रोटी का ढोल बनाना सीखे, परतों वाला परांठा और कीमे वाले करेले बनाना सीखे। अब तो बस पढ़ाई थी और नए झमेले थे। मां को पता था कि अब शादी के लिए भी डिग्री की ज़रूरत है। लड़कों से भी ज्यादा लड़कियों को। उसका अपना ज़माना तो अच्छा था, लेकिन अब बेटी की विदाई के लिए सोने के जेवरों के साथ-साथ शिक्षा का जेवर भी देना पड़ता है।
बेटी स्कूल से लौट आई है। आकर उसने सलाम किया और उसकी मां ने उसके हाथ में कच्ची लस्सी का एक कटोरा थमा दिया। लस्सी पीने के बाद उसने अपनी स्कूल की पोशाक बदली। अपनी मां के साथ छोटी रसोई में बैठ पुदीने और अनारदाने की चटनी के साथ चुपड़ी हुई चपातियां खाते हुए स्कूल की बातें सुनाती रहीं, लेकिन उसने कभी उसे यह नहीं बताया कि चाचा लंगा, स्कूली लड़के और रिक्शा चालक उसे कैसे देखते हैं। लेकिन मां उसे हमेशा एक बात समझाती, ‘बेटी! घर की इज़्ज़त तुम्हारे हाथ में है। अपनी निगाहें झुकाए रखा करो ताकि तुम्हारे पिता की पगड़ी ऊंची रहे। कोई बुरी नज़र से न देखे और दरूद शरीफ का विरद (जप) किया करे। अपनी इज़्जत अपने हाथों में होती है।’
वह बिना एक शब्द कहे सुन लेती और अपने काम में व्यस्त रहती।
‘यह लो, वीर आया है। पहले उसे रोटी दे आ। बाकी आकर खाना।’ मां अपने बेटे को मोटरसाइकिल अंदर रखते देखती और कहती।
‘अम्मी, मेरी रोटी ठंडी हो जाती है। मुझे सुकून से खाने दिया करें।’
‘बेटी! बुजुर्गों का कहना है कि रोटी खाते समय बेटी को सात बार उठाया जाना चाहिए। उसे अगले घर जाकर यही सब करना होता है।’
‘एक तो मैं इन बुजुर्गों से बहुत परेशान हूं। कौन हैं ये बुजुर्ग? मेरे सामने लाओ। उन्हें खाते समय उठाया जाए तो पता चले कि परेशानी क्या होती है, आए बड़े, बुजुर्ग लोग! इन बुजुर्गों से कभी भी न तो गणित के सवाल हल हो पाने थे और न ही अंग्रेजी विषय याद हो पाना था।’
मां का पारा चढ़ने लगता, ‘अरी, बस कर, तुझे तो इज्जत रास ही नहीं आती। इतनी बार मैंने तुझसे प्यार से कहा है, पता नहीं तुझे कौन-सी भाषा समझ आती है। चलो रोटी दे कर आओ और उठो।’
मां उसके सामने से चंगेर उठा लेती, और वह बुरा-सा मुंह बना कर उठ जाती। अगले दिन भी ऐसा ही कुछ होता, कभी कम और कभी ज़्यादा।
‘नज़रें झुका कर रखा करो, घर की इज़्जत बेटी के हाथ होती है।’ लाज-शर्म वाली बेटियां पिता के सिर का ताज होती हैं, बड़ी चादर लिया करो, कपड़े सीधे रखा करो, तंग कपड़े मत सिलवाया करो। अरी, इत्र लगा कर मत जाया कर। बालों को बांध कर रखा करो।’
ये सभी बातें थीं जो उसकी मां उसके हर कदम पर दोहराती थी।
‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान रमजान की मुबारक रात को दुनिया के नक्शे पर उभरा। हमें यह देश इस्लाम के नाम पर मिला है। हिंदुस्तान के मुसलमानों ने बहुत कुर्बानियां दीं और पाकिस्तान की मांग की? ला इल ला अल्लाह का नारा लगाया। मुशराती फिटकरी वाली अध्यापिका उसे यह सब चीजें पढ़ाती थीं।
‘इस्लाम में पांच अराकीन- कलमा, नमाज़, रोज़ा, ज़कूह और हज शामिल हैं।’ इस्लामियत वाली अध्यापिका की ये बातें थीं।
अंग्रेजी उसे समझ में नहीं आती थी और गणित का नाम सुनते ही वह घबरा जाती थी लेकिन सारी किताबें पढ़ने के बाद भी उसे यह समझ नहीं आया कि महिलाओं को अपनी आंखें क्यों झुका कर रखनी चाहिए और उन्हें तंग कपड़े क्यों नहीं पहनने चाहिए।
स्कूल की छुट्टी का दिन था और उसने अपनी मां के साथ मिल कर सफाई करवाई। वीरे के कमरे में जब उसने चादर झाड़ने के लिए तकिया उठाया, तो उसके माथे पर पसीना आ गया। शर्म से रंग लाल हो गया। बिस्तर पर पांच-छह अंग्रेजी फोटो थे। उसने तकिया छोड़ा और बाहर भाग गई।
‘ओह अम्मी! वीरे के कमरे की सफाई आप खुद कीजिए। पता नहीं उसने वहां क्या-क्या रख छोड़ा है।
मां ने अपनी बेटी को पसीने से तरबतर देखा और भाग कर भीतर गई। उसने तस्वीरें उठाईं व जलती आग में डाल दीं। मां और बेटी दोनों चुप रहीं।
उसने काफी दिनों तक इंतजार किया कि अम्मी वीरे से कुछ बात करेंगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ। फिर उसने सोचा कि जब उसकी मां ने उससे छुपा कर बात कर ली हो, हो सकता है उसे पता न चला हो।
लेकिन जब भी वह इस बारे में सोचती, तस्वीरें उसकी आंखों के सामने घूम जातीं और हर बार घबराहट होने लगती। रात को आंगन में लेटकर वह तारों को निहारती लेकिन सभी तारे तस्वीरों में बदल जाते। वह शर्म से आंखें बंद कर लेती, फिर भी तस्वीरें उसकी आंखों के सामने ही रहतीं। उसने बहुत कलमे पढ़े, बहुत विरद किए पर वे तस्वीरें थीं कि पीछा नहीं छोड़ती थीं।
कई दिन गुज़र गए और एक दिन उसे मोबाइल बजने की आवाज़ सुनाई दी। उसने वीरे को आवाज़ दी लेकिन शायद वह अपना मोबाइल घर पर भूल कर चला गया था। काफ़ी देर शोर मचाने के बाद मोबाइल शांत हो गया। थोड़ी देर बाद फिर से घंटी बजने लगी। जब आधे घंटे तक शोर चलता रहा तो मां ने खुद ही कहा, ‘अरी, देख तो कौन है?’ आग लगे इन मोबाइलों को भी। पूछे तो कहना बाहर गया है।’
उसने किताब बंद की और जाकर मोबाइल उठाया।
‘हैलो!’
‘हैलो!’
‘जी कौन’
‘गुलफाम घर पर है?’
‘नहीं, वे बाहर गए हैं। आप कौन?’
‘मैं उसका दोस्त राशिद हूं। आप कौन?’
‘जी मैं... उन... उनकी बहन, जी उनकी सिस्टर।’
‘अच्छा। क्या नाम है आपका?’
‘ओह जी, जी।’
‘क्यों घबरा रही हैं, मैं कौन-सा खा जाऊंगा?’
‘नहीं जी, वीरा बाहर गया है, आएगा तो बता दूंगी।’
यह कहते हुए उसने फोन रख दिया।
‘ओ अम्मी वीर का कोई दोस्त था। उसने टूटे-फूटे शब्दों में उसने कहा।
‘अच्छा! कहना था कि वीरा बाहर गया है।’ काम में व्यस्त मां ने कोई ध्यान नहीं दिया।
‘हां, मैंने कह दिया था।’
जब वीर घर आया तो वह चिल्लाने लगा, ‘मेरे मोबाइल को किसने छुआ?’
वह अपनी मां के सिर पर चढ़ गया और चिल्लाने लगा।
‘क्या हुआ? आराम से... किसी ने नहीं छेड़ा तुम्हारा फोन। तुम्हरा फोन बजे जा रहा था, बजे जा रहा था तो तुम्हारी बहन ने उठाया, कह दिया कि वीरा घर पर नहीं है।’ मां ने मानो सफाई दी।
‘कान खोल कर सुन लो। आगे से मेरे फोन को हाथ लगाया तो हाथ काट कर फेंक दूंगा।’ नथुने फुलाता हुआ वह बाहर निकल गया।
अम्मी का चिमटा, रोटियां सेंकने की आवाज, मथनी की आवाज़, गोबर उपले, जलावन और स्कूल। सब कुछ वही था, लेकिन तस्वीरें नई थीं। और वह आवाज़ उससे भी ज्यादा ताज़ा-तरीन थी। अब आवाज़ कानों में और तस्वीरें आंखों के सामने रहती हैं। उसने अपनी मां और भाई से नज़रें बचा कर, कॉपी से एक पन्ना फाड़ लिया और पेंसिल से जल्दबाज़ी में एक नंबर लिख कर अपने बैग में रख लिया।
आज तो भूख नहीं थी। उसे मां भी सौतेली जान पड़ी। पिता तो जैसे था ही नहीं। वीरा भी ज़हर-सा लगा। घर के मवेशी मानों कान हिला-हिला कर पुकार रहे हों। मोटी भैंस की मोटी आंखों में आज गहरी उदासी थी। उसे लगा जैसे सभी जानवरों ने जुगाली करना बंद कर दिया है। और बस उसे ही निहारते जा रहे हैं। घूरते रहे। मां पता नहीं क्या बोले जा रही थी, लेकिन उसके कानों में एक ही आवाज़ थी। उसने घर के बाहर पैर रखा और गली में गुम हो गई।
अनुवाद : नीलम शर्मा ‘अंशु’