खूबसूरत चिट्ठियों में ललित गद्य
योगेश्वर कौर
सुमेर सिंह राठौड़ युवा रचनाकार और चित्रकार हैं। फोटोग्राफर के रूप में इन्होंने सराहनीय काम किया है। लेकिन कलाकार के शब्द, जब चिट्ठी में पिरोए जाते हैं तो एक अलग माहौल दे जाते हैं। सुमेरसिंह ने प्रस्तुत पुस्तक ‘बंजारे की चिट्ठियां’ समर्पित की हैं ‘उनके लिए जिनके होने से ‘होनाÓ बचा हुआ है...’ यही अस्तित्व राठौड़ को रचनाकार के रूप में मौलिक और सृजनात्मक बना रहा है।
चिट्ठियां जो खुद को भेजनी थी... में लेखक इकबाल करता है कि उसके इर्दगिर्द हवा है, पत्ते हैं, रेत हैं और रेगिस्तान की चेतना भी। जोधपुर हो या जैसलमेर, ये चिट्ठियां मानो रचनाकार खुद को मुखातिब कर रहा है। और इसी बहाने अनेक पात्रों में तरह-तरह के रंग भी भर रहा है। ये रंग माहौल के हैं, प्रकृति के हैं, पत्ते के हैं, भेड़-बकरियों और रेत के डूहों के भी। आत्मचेता होकर सुमेरसिंह राठौड़ जब इस लेखन को बंजारे की चिट्ठियां का नाम देते हैं तो एकाएक अलग दिशा में मन:स्थिति इसे मानने के लिए तैयार हो सकती है, लेकिन यहां तो खूबसूरत 222 पन्नों में ललित गद्य अंकित है। ऐसा ताजा गद्य जिसमें चमत्कार की चकाचौंध है। एक धुंधलका किसी रोशनी को खोज रहा है। बादल, बरसात या बूंदाबांदी शरीर को नहीं, आत्म को स्पर्श करने लगते हैं। यहां चिट्ठियां आत्मबल प्रदान करती हैं। एक जगह पृष्ठ 142 पर एक नमूना है :- ‘अपनी जमा हुई जमापूंजी से मैंने दो सिगरेटें खरीदीं।/ एक से खुद को फूंका और दूसरे से प्रेम को।/ अब मैं शायद वह हूं/ जो पहले कभी था या कभी न था।Ó’
सकारात्मक और नकारात्मक मुद्रा में यह एक परिभाषा है। प्रेम से प्रेम तक भाषा में। छोड़ने और पकड़ने की स्थिति। इसी तरह एक, या एक डेढ़ पन्ने में यह नूतन गद्य रफ्तार पकड़ता है और सहृदय पाठक को गद्गद कर जाता है। बंजारे की चिट्ठियां जहां राजस्थान की आंचलिक भाषा से परिचित करवाती हैं, वहीं अनेक ऐसे दृश्य भी हमारे सामने फ्रेम में दिखा जाती है, जिसे एक ‘स्टिल’Ó की तरह इंज्वाय किया जा सकता है। वे दिन आ रहे हैं जब हमारी नई पीढ़ी एक और पौध के रूप में इतना अच्छा लालित्य लेखन हमें दे पाएगी कि हम इनकी सराहना किए बिना नहीं रह पाएंगे।
पुस्तक : बंजारे की चिट्ठियां लेखक : सुमेर सिंह राठौड़ प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 222 मूल्य : रु. 199.