पौराणिक आख्यानों को जीवंत करने का उत्सव
अभिनव गुप्त
हिमाचल प्रदेश, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है, एक आध्यात्मिक भूमि है, जहां हर क्षेत्र में किसी न किसी देवता की पूजा की जाती है। इस प्रदेश में विभिन्न तीर्थ स्थल और मेले स्थानीय संस्कृति, धार्मिक परंपराओं और सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यहां विभिन्न देवताओं की पूजा के लिए नियमित मेलों का आयोजन किया जाता है, जैसे कुल्लू का दशहरा, सोलन का शूलिनी मेला, और मंडी का शिवरात्रि मेला। इन मेलों का न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक और व्यापारिक महत्व भी है, क्योंकि वे दूर-दराज के गांवों और कस्बों को जोड़ने का काम करते हैं। हिमाचल की भौगोलिक कठिनाइयों के कारण ये मेले लोगों के लिए सामाजिक संपर्क और आवश्यक वस्तुओं की खरीद-बिक्री का अवसर प्रदान करते हैं। इन मेलों के माध्यम से हिमाचल की लोक-संस्कृति का संरक्षण और प्रसार होता है, और कई मेले तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रसिद्ध हो गए हैं।
रेणुकाजी मेला
इन मेलों में से जिला सिरमौर का एक प्रसिद्ध मेला है रेणुकाजी मेला। रेणुका माता भगवान श्रीहरि विष्णु के छठे अवतार श्री परशुराम जी की माता थीं। उनका स्थान सिरमौर जिले में ददाहू कस्बे के पास एक सुंदर झील के रूप में विद्यमान माना जाता है। सिरमौर, हिमाचल के पूर्वी छोर पर बसा है। चारों ओर ऊंचे पहाड़ों से घिरी घाटी के बीच में एक सुरम्य झील स्थित है, जो मानवाकार रूप में है। इसके बारे में मान्यता है कि यहां माता रेणुका विश्राम कर रही हैं। ददाहू, यहां का निकटवर्ती कस्बा है, जो गिरी नदी के तट पर बसा है।
इस तीर्थ स्थल को पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित किया गया है। लगभग 3 किलोमीटर में फैली झील के चारों ओर परिक्रमा मार्ग बना है। इसके एक भाग में प्राणी विहार भी विकसित किया गया है। यहां प्रमुख रूप से माता रेणुका जी और भगवान परशुराम जी के मंदिर हैं। इसके अतिरिक्त, दशावतार मंदिर और शिवालय भी दर्शनीय हैं। मां रेणुका जी झील के साथ ही परशुराम ताल और बावड़ी भी श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र हैं।
परशुराम जी का आगमन
मान्यताओं के अनुसार दीपावली के पश्चात दशमी के दिन भगवान परशुराम जी वर्ष में एक बार अपनी मां से मिलने यहां आते हैं। उनका यह प्रवास डेढ़ दिन का माना जाता है। भगवान परशुराम जी के आगमन और माता-पुत्र के मिलन के उपलक्ष्य में यहां वर्षों से मेला आयोजित होता आया है।
प्राचीन कथा के अनुसार, सतयुग में इस स्थान पर परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि का आश्रम स्थित था। वे अपनी धर्मपत्नी देवी रेणुका और पुत्रों के साथ शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन राजा सहस्रबाहु इस स्थान पर अपनी विशाल सेना के साथ आया और महर्षि से अपनी सेना के भोजन का प्रबंध करने को कहा। महर्षि और देवी रेणुका ने शीघ्र ही पूरी सेना के लिए भोजन की व्यवस्था कर दी। यह देख राजा सहस्रबाहु विस्मित हुआ और महर्षि से पूछा कि उन्होंने इतनी बड़ी सेना के लिए इतनी जल्दी भोजन कैसे तैयार किया। तब महर्षि ने उसे बताया कि उनके पास भगवान इंद्र द्वारा प्रदत्त कामधेनु गाय है, जो किसी भी वस्तु को प्राप्त करने के लिए सक्षम है।
राजा सहस्रबाहु की लालसा कामधेनु गाय को प्राप्त करने की थी, और जब महर्षि ने उसे मना कर दिया, तो उसने बलपूर्वक गाय छीनने का प्रयास किया। महर्षि का विरोध करने पर, सहस्रबाहु ने महर्षि जमदग्नि और उनके चार पुत्रों की हत्या कर दी। अपने परिवार का यह नरसंहार देखकर मां रेणुका चीत्कार कर उठीं और अपने ज्येष्ठ पुत्र परशुराम को पुकारा।
परशुराम जी उस समय महेन्द्र पर्वत (अरुणाचल प्रदेश) में तपस्या में लीन थे। माता की पुकार सुनकर उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी घटना का ज्ञान प्राप्त किया और क्रोधित होकर सहस्रबाहु की सेना का संहार कर दिया। इसके बाद वे अपनी माता के पास पहुंचे और तपोबल के प्रभाव से अपने पिता और भाइयों को पुनर्जीवित किया। जब वे माता से आशीर्वाद लेकर वापस जाने लगे, तो माता ने उन्हें अपने पास रुकने के लिए कहा, लेकिन परशुराम जी ने असमर्थता व्यक्त की। साथ ही, उन्होंने माता को यह वचन दिया कि वे हर वर्ष दीपावली के बाद दशमी और एकादशी के दिन डेढ़ दिन के लिए यहां अवश्य आएंगे।
देवताओं की शोभायात्रा
परशुराम जी के आगमन को यहां उत्सव के रूप में मनाया जाता है, और एक विशाल मेला आयोजित किया जाता है। इस मेले में आसपास के सभी गांवों के देवता सज-धज कर पालकियों में ददाहू नगर पहुंचते हैं। इन पालकियों को शोभायात्रा के रूप में रेणुकाजी तक लाया जाता है। भक्तों की भारी भीड़ देवताओं के दर्शन करने उमड़ती है। लोग पवित्र झील में स्नान करते हैं और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है।
पालकियों की विदाई
जनजातीय लोग मेले में खरीदारी करने दूर-दूर से आते हैं। श्रद्धालु और पर्यटक भी मेले में भाग लेते हैं और भगवान परशुराम जी एवं माता रेणुकाजी से सुखी जीवन की कामना करते हैं।
दशमी से पूर्णिमा तक चलने वाले इस मेले के अंतिम दिन देवताओं की पालकियों को सम्मानपूर्वक विदा किया जाता है।