बनते-बिगड़ते रिश्तों के अहसास
प्रेम चंद विज
लाजपत राय गर्ग का ‘अमावस्या में खिला चांद’ छठा उपन्यास है। पूर्व उपन्यासों की तरह यह उपन्यास भी समाज के लिए संदेश लिए हुए है। इसमें दहेज, घरेलू हिंसा जैसी कुरीतियों पर प्रहार करते हुए लेखक लैंगिक समानता, शिक्षा, स्वावलम्बन आदि का समर्थन करता है। वह मानता है, ‘मित्रता किसी भी प्रकार के वर्ग, आयु, जाति, धर्म, लिंग भेद के हो सकती है। … आधुनिक सोच और प्रगति के बावजूद हमारे समाज में स्त्री व पुरुष के बीच मित्रता को अभी भी सहजता से नहीं लिया जाता, बल्कि संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।’
लेखक ने आधुनिक जीवन की भौतिकता की चकाचौंध में खोखले हो रहे पारिवारिक संबंधों को बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। नायिका शीतल का जीवन दहेज के कारण और कॉलेज के प्रिंसिपल मानवेन्द्र का उसकी पत्नी की अर्थलोलुपता के कारण बर्बाद हो चुका है। लेखक ने बहुत कुशलता से प्रवीर और शीतल के माध्यम से स्त्री-पुरुष के संबंध की शुचिता को पेश किया है। शीतल का जीवन दहेज के दानव के ग्रहण से अमावस्या की रात्रि में तब्दील हो जाता है। शीतल और मानवेन्द्र के विवाह होने से अमावस्या में चांद खिल जाता है।
उपन्यासकार ने समाज की एक बहुत बड़ी ज़रूरत रक्तदान की तरफ़ भी ध्यान दिलाया है। रक्तदान को जीवनदान कहा गया है। हरियाणा के सुपरिचित साहित्यकार मधुकांत का उपन्यास में महत्वपूर्ण उल्लेख है, जिन्होंने पूरा जीवन रक्तदान विषयक कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध लेखन को अर्पित करने के साथ-साथ रिकार्ड रक्तदान शिविर लगाने को समर्पित कर दिया।
लेखक ने उपन्यास में भारत की गौरवशाली संस्कृति को भी प्रस्तुत किया है। जैसे हमारी संस्कृति में सबको समान माना गया है, इसके अनुरूप लेखक ने कहीं भी किसी जाति या कुलगोत्र का प्रयोग नहीं किया है। वे एक समरस समाज की स्थापना करना चाहते हैं।
उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पाठक की जिज्ञासा और उत्सुकता निरन्तर बनी रहती है। इसका एक कारण कथानक में पात्रों की सीमित संख्या भी है। शब्द-संयोजन में लेखक ने प्रसंगानुसार व पात्रों के संवादों में इंग्लिश, उर्दू व पंजाबी के शब्दों का यथोचित प्रयोग किया है।
पुस्तक : अमावस्या में खिला चांद लेखक : लाजपत राय गर्ग प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर पृष्ठ : 128 मूल्य : रु. 150.