जिम्मेदारी का करें अहसास
पहले से ही उम्मीद थी कि दीपावली के बाद प्रदूषण के स्तर में वृद्धि होगी, वैसा हुआ भी। पहले से ही दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का संकट बढ़ा हुआ था। सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियां बार-बार हमारा ध्यान खींचती रहीं। पिछले दिनों खबर आई कि दिल्ली दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित राजधानी है। वहीं एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सर्वाधिक प्रदूषित 32 शहरों में ग्यारह हरियाणा के हैं। यही वजह है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकारों को फटकार लगाई कि प्रदूषण रोकने के लिये जमीनी स्तर पर प्रयास न के बराबर हैं। दरअसल, इस मौसम में हर साल ठंड शुरू होते ही हवा की दशा-दिशा में बदलाव के साथ ही आसमान में धुएं की परत जमने लगती है। यही वजह है कि पराली संकट व अन्य कारणों से बढ़ते प्रदूषण से चिंतित सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहना नागरिकों का मौलिक अधिकार है। लेकिन एक हकीकत यह भी है कि सिर्फ सरकारी प्रयासों से ही प्रदूषण की समस्या का समाधान संभव नहीं है। यह स्थिति तभी बदलेगी जब लोगों की तरफ से भी ईमानदार पहल होगी। अब चाहे बात राष्ट्रीय सरोकारों की हो, पानी संकट की हो या फिर प्रदूषण की हो। जब नागरिकों को अहसास होगा कि बिना पटाखे छुड़ाए भी खुशी मनायी जा सकती है तो हम समाज के लोगों, जीव-जंतुओं व पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सार्थक प्रगति कर सकेंगे। बात तब बनेगी जब हम बच्चों के पाठ्यक्रम में यह बात शामिल करेंगे कि उनके भविष्य के लिये पर्यावरण, पानी व हवा की रक्षा कितनी जरूरी है। बच्चों को अहसास कराएं कि जिस तरह से बड़े लोग पानी का दुरुपयोग कर रहे हैं, उससे उनके भविष्य के लिये पानी का संकट गहरा हो जाएगा। इसके लिये टीवी, प्रिंट मीडिया व सोशल मीडिया के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाये जा सकते हैं। इस अभियान में सूचना माध्यमों की भी जवाबदेही तय करने की जरूरत है।
दरअसल, ग्रीन ट्रिब्यूनल या अन्य प्रदूषण नियंत्रक संस्थाएं अकसर राज्यों के सचिवों व अधिकारियों को दंडित करने की बात करती हैं, लेकिन इससे समस्या का समाधान संभव नहीं है। दरअसल, जब तक नागरिकों व किसानों को जागरूक -जवाबदेह नहीं बनाया जाएगा, तब तक स्थिति में बदलाव संभव नहीं है। हम भूल जाते हैं कि इस संकट को बढ़ाने में राजनीति की बड़ी भूमिका है। किसानों के मुद्दों को जोरशोर से उठाकर श्रेय लेने वाले राजनेताओं की जवाबदेही तय होनी चाहिए। दरअसल, बंपर पैदावार का श्रेय लेने वाले राजनेता तब कहां चले जाते हैं जब पराली जलाने का संकट पैदा होता है? सही मायनों में जहां पराली जलाने की घटनाएं ज्यादा होती हैं, वहां क्षेत्र के विधायकों की भी जवाबदेही तय की जानी चाहिए। उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए कि वे क्षेत्र के किसानों को जागरूक क्यों नहीं कर पाते। क्यों वे पराली के निस्तारण के वैकल्पिक संसाधन उपलब्ध कराने में किसानों का सहयोग नहीं करते? विडंबना यही है कि वे वोट की राजनीति के प्रलोभन में पराली जलाने के खिलाफ आवाज उठाने में चुप्पी साध लेते हैं। उनके खिलाफ भी तो लापरवाही के मामले दर्ज होने चाहिए। वहीं यह भी हकीकत है कि प्रदूषण संकट के मूल में सिर्फ पराली समस्या ही नहीं है। हमारी उपभोक्ता संस्कृति, वाहनों का अंबार, सार्वजनिक यातायात सुविधा का पर्याप्त न होना, अनियोजित निर्माण कार्य, जीवाश्म ईंधन का प्रयोग तथा कूड़े का वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण न होना भी प्रदूषण संकट के मूल में है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये व्यापक स्तर पर जनजागरण अभियान चलाने, शैक्षिक पाठ्यक्रम में प्रदूषण-पर्यावरण के मुद्दे शामिल करने तथा तंत्र की जवाबदेही तय करना प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि हम ऐसा करें तो साल-दर-साल बढ़ते प्रदूषण संकट पर किसी तरह लगाम लगाने में हम कामयाब हो सकते हैं। साथ ही हर साल वायु प्रदूषण से होने वाली लाखों मौतों को हम रोक पाने में कामयाब हो सकते हैं। शासन को भी आग लगने पर कुआं खोदने की मानसिकता से बचना होगा और दूरगामी प्रभावों वाली नीतियां लागू करनी होंगी।