पितरो हो सके तो माफ कर देना
अरुण नैथानी
साल भर इंतजार रहता है कि कब पितर पक्ष आएगा। एक अलग तरह का भावनात्मक उद्वेग रहता है पूर्वजों को याद करने का। वैसे तो हिंदू-दर्शन में पितरलोक होने का दृढ़ विश्वास रहा है। वो बात अलग है कि नासा व रूस, चीन के अंतरिक्ष वैज्ञानिक ऐसे लोक में अब तक झांक नहीं पाए हैं। कुछ चीजें तर्क से परे होती हैं लेकिन लोक का विश्वास अकाट्य तर्क वाला होता है। कई दिनों तक पंचांग व अखबारों पर नजर रखी कि किस दिन परिवार के पूजनीय का श्राद्ध है। कई दिनों से इसकी तैयारी हो रही थी। पंडित जी से तर्पण के सामान की लिस्ट और उनके भोजन का मेन्यू पूछ लिया था। पितर पक्ष के दबाव में वैसे ही पंडित जी कम ही मिल पाते हैं, फलत: पास के कस्बे वाले पंडित जी की मान-मनौवल करने के बाद उन्होंने आना मान लिया।
जैसे-तैसे पंडित जी श्राद्ध पर तर्पण करवाने आ गए। वे तीन घंटे देरी से आए थे। पता चला कि सुबह से चले हैं और आधा दर्जन भर घरों में तर्पण करवाकर आ रहे हैं। आसन पर विराजकर उन्होंने तर्पण के लिये प्रयोग किए जाने वाले सामान की सूची मिलायी। पहले गाय का कच्चा दूध तर्पण के लिये मांगा। तो माथा ठनका कि महानगरों में थैलियों में आने वाले दूध के बारे में तो विश्वास से कहना मुश्किल है कि वो गाय का है, भैंस का है, बकरी का है या फिर सिंथेटिक मशीनी दूध। पंडित जी से दुविधा बतायी तो बोले जैसा है, ले आओ- ‘आपात काले मर्यादा नास्ति।’ फिर बोले जौ-काले तिल ले आओ। तिल की तो बात समझ में आती है लेकिन गोरे-काले का तो भेद नहीं पता था। जैसे-तैसे एक किराने वाले से जौ-काले तिल ले आया तो पंडित जी ने फिर दूब मंगवायी। ऐसे दौर में जब फ्लैट से लेकर सड़क तक पक्की व सीमेंटेड है, हरी दूब कहां से लाएं?
खैर, पंडित जी के पास हर चीज का तोड़ होता है। ले-देकर बताया कि मेरे थैले से कुशा निकाल लो, काम चल जाएगा। फिर पंडित जी बोले- सभ्य तरीके से जनेऊ पहनो। जजमान फिर संकट में, शादी के वक्त पहना जनेऊ न जाने अब कहां होगा? पंडित जी के थैले से विकल्प मिला।
फिर पंडित जी बोले, तोरी-लौकी की बेल से पांच पत्ते तोड़कर आओ। अब ये बेल कहां से तलाशें? बहरहाल, तर्पण में पितरों तक भोजन पहुंचाने के लिये पहला भाग देवों का, दूसरा गाय का, तीसरा कौवे का, चौथा कुत्ते का, पांचवां कीट-पतंगों का। पंडित जी का फरमान सुनते ही जजमान के माथे पर बल पड़ गया। महानगर में गाय पालना अपराध है, पिछले साल ढूंढ़कर भी गाय न मिली थी। कौवे तो वर्षों से नजर ही नहीं आते। कुछ साल पहले कौवे नजर आते थे लेकिन लगता है वे नेताओं की कांव-कांव सुनकर पितर लोक ही चले गए। बाकी रहे कुत्ते, हैं तो बहुत सारे, लेकिन वे पूरी खाते नहीं, जो श्राद्ध में बनानी जरूरी होती है। कीट-पतंगे भी पक्का खाना खाने से परहेज कर रहे हैं। जैसे कह रहे हैं कि वे फास्टिंग पर हैं। पितरो अगाध श्रद्धा के बावजूद मैं लाचार हूं, चाहकर भी श्रद्धा से श्राद्ध नहीं मना पा रहा हूं। हो सके तो पितरो माफ कर देना।