पिता
अपनी ज़िंदगी में वह हमेशा पिता के अभाव का दु:ख महसूस करता रहा था। पिता के न होने से वह हमेशा अपने को अपमानित और दु:खी महसूस करता था। वह मां से लिपटकर खूब रोना चाहता था और चाहता था कि मां भी उसके साथ-साथ रोए। लेकिन मां चुप थी। रो-रो कर आंख पोंछते हुए बच्चा भी चुप हो गया। वह नहीं जानता था कि आतंकवादियों के हमले में उसके शहीद सैनिक पिता ने अब उसके हृदय में जन्म ले लिया है।
डॉ. पंकज मालवीय
सरोज के लिए यह दु:ख पहाड़ से भी बड़ा था। बेहद असहनीय दु:ख! उसकी उम्र ही कितनी थी, केवल 19 साल। 6 महीने की गर्भवती भी थी वह।
कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में आतंकवादियों से लोहा लेते हुए उसका पति विश्वेश्वरप्रसाद शहीद हो गया था। आज तिरंगे में लिपटा उसका पार्थिव शरीर सिराथू जिले के कड़े मानिकपुर गांव में अंतिम संस्कार के लिए लाया गया था। पूरे राजकीय सम्मान से उसका दाह-संस्कार किया गया। पूरा गांव शोक में डूबा था। सरोज को बेहोशी की हालत में किसी भी हलचल का कोई ज्ञान न था। वह अपने कच्चे मकान में बेसुध पड़ी थी। गरीबी, लाचारी की वजह से वह गांव में बेचारी हो गई थी।
इस घटना को बीते 7 साल से भी अधिक का वक्त हो गया था। सैनिक की विधवा होने के कारण सरोज को गांव के सर्वोदय विद्यालय में पानी पिलाने वाली दाई की छोटी नौकरी मिल गई थी ताकि उसका गुजारा हो सके। उसका अपना बेटा नंदन भी करीब-करीब 7 साल का हो गया था और वह भी उसी विद्यालय में पढ़ता था। सरोज के घर में और कोई नहीं था जो बच्चे की देखभाल करता। इसलिए बच्चा अपनी मां के साथ ही विद्यालय में पूरे-पूरे दिन मटरगश्ती करता, वही मैदान में खेलता और किसी पेड़ के नीचे सो जाता। गांव के दूसरे बच्चे भी वहां खेलते। नंदन सभी बच्चों में सबसे छोटा था। बड़े बच्चे उसे अपने साथ नहीं खिलाते थे, बल्कि उसे चिढ़ाते थे। उससे पूछते, तुम्हारा पिता कौन है? क्या नाम है तुम्हारे पिता का? कहां रहते हैं तुम्हारे पिता? नंदन अपने पिता का नाम ठीक से उच्चारित नहीं कर पाता था। नाम बोलते समय वह हकलाता और तुतलाता था। बच्चे जोर-जोर से ताली बजा-बजा कर उसे और चिढ़ाते। नंदन ऊंची आवाज़ में कहता ‘मेरे पिता सेना में हैं। वह सैनिक की वर्दी पहनते हैं। वह कैप लगाते हैं। जल्दी ही वह मुझसे मिलने आने वाले हैं। फ्रेम में लगी उसकी फोटो दिखाते हुए मां मुझसे ऐसा कहती है।’
विद्यालय में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाने का आयोजन किया गया था। झंडारोहण और रंगारंग कार्यक्रम के पश्चात बच्चों को टी.वी. पर दिल्ली की परेड में वीर सैनिकों को शौर्य चक्र प्रदान करने का समारोह दिखाया गया। जब राष्ट्रपति द्वारा एक सैनिक को शौर्य चक्र प्रदान किया जा रहा था तो अचानक नंदन जोर-जोर से बोलने लगा कि यही मेरे पिता हैं, मेरे पिता! उस समय नंदन के बाल सुलभ हृदय में अज्ञात पुत्र सुलभ प्रेम और कोमल भावपूर्ण तरंगे उठ रही थीं। उसके लिए यह ज़रूरी था कि अगली पंक्ति में बैठे अन्य विद्यार्थी जो उसे चिढ़ाते थे वे भी उसे सुने। इसलिए वह भाग कर आगे आते हुए बस यही दोहराता रहा, ‘देखो, देखो..., यह मेरे पिता हैं! देखो... वह ऐसे सल्यूट मारते हैं।’ और उसने ज़ोर से पैर पटक कर सल्यूट मारने की कोशिश की और ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़ा। और तुरंत उठकर फिर से सल्यूट की मुद्रा में खड़ा हो गया। और बार-बार यही रट लगाए रहा कि यह मेरे पिता हैं। बच्चे उसकी ओर इशारा कर-कर के ज़ोर-ज़ोर से हंस रहे थे और उसे चिढ़ा रहे थे। लेकिन उसने अपनी रट नहीं छोड़ी। वह जितना उत्तेजित था, वहां बैठे लोग उतने ही शांत थे। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि लोग खुश क्यों नहीं हो रहे हैं। उन्हें उसके पिता पर गर्व क्यों नहीं हो रहा है।
इसी बीच उसके पड़ोस का एक बच्चा आगे आकर उससे बोला, ‘यह तुम्हारे पिता नहीं हैं।’ जितनी ज़ोर से वह बच्चा बोल रहा था उससे अधिक ज़ोर से नंदन एक ही रट लगाए था, ‘नहीं... यही मेरे पिता है! मेरे, मेरे, मेरे पिता...!’ चिल्लाते-चिल्लाते उसका चेहरा लाल हो गया, उसका गला भर आया, उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे, लेकिन उसने अपनी रट नहीं छोड़ी।
इसी बीच विद्यालय के सहकर्मियों ने सरोज को सूचित किया। ‘देखो..., तुम्हारा बेटा क्या तमाशा कर रहा है।’
यह सुनकर सरोज भागती हुई आई। डबडबाई आंखों से उसने एक झटके में नंदन को गोदी में उठाया और रुंधे स्वर में बोली, ‘हां, बेटा... यही तुम्हारे पिता हैं!’
अपनी ज़िंदगी में वह हमेशा पिता के अभाव का दु:ख महसूस करता रहा था। पिता के न होने से वह हमेशा अपने को अपमानित और दु:खी महसूस करता था। वह मां से लिपटकर खूब रोना चाहता था और चाहता था कि मां भी उसके साथ-साथ रोए। लेकिन मां चुप थी। रो-रो कर आंख पोंछते हुए बच्चा भी चुप हो गया। वह नहीं जानता था कि आतंकवादियों के हमले में उसके शहीद सैनिक पिता ने अब उसके हृदय में जन्म ले लिया है।