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सड़क पर किसान

08:03 AM Feb 14, 2024 IST
सड़क पर किसान
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यदि राजनीति और अन्य दुराग्रहों को नजरअंदाज कर दें तो देश के लिये अन्न उगाने वाले किसानों का अपनी मांगों के लिये सड़क पर आना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा। भले ही 2020-21 में हुए लंबे किसान आंदोलन के दौरान होने वाली हिंसक घटनाओं और लाल किले प्रकरण के मद्देनजर केंद्र व हरियाणा सरकार सख्ती दिखा रही हो, लेकिन फिर किसानों के लिये मार्ग में भारी-भरकम अवरोध लगाने और कीलें बिछाने की कार्रवाई को अच्छा नहीं कहा जा सकता है। निस्संदेह,प्रशासन के सामने कानून-व्यवस्था का प्रश्न होता है और ऐसे आंदोलन के दौरान अराजक तत्वों की दखल का अंदेशा बना रहता है। आम नागरिकों की सुरक्षा के मद्देनजर ऐसे उपाय जरूरी हो सकते हैं मगर सवाल यह है कि ऐसी स्थिति आती ही क्यों है? समय रहते किसानों के जायज मुद्दों पर संवेदनशील पहल क्यों नहीं होती। तीन कृषि कानूनों के विरोध में लंबे चले आंदोलन के बाद हुए समझौते से जुड़े मुद्दों पर अमल के लिये केंद्र सरकार के पास पर्याप्त समय था। बेहतर होता कि कुछ मांगों को पूरा करने पर पहल होती। वैसे सरकार की दलील रही है कि इतने बड़े देश में हर फसल को एमएसपी के दायरे में लाना व्यावहारिक न होगा और उसका अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ेगा। लेकिन इसके बावजूद हम स्वीकारें कि आज खेती घाटे का सौदा बन गई है। किसानों की आत्महत्या को इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए। नई पीढ़ी अब खेती से कतराने लगी है। निस्संदेह, भारतीय खेती का स्वरूप विशुद्ध व्यावसायिक नहीं रहा है, लेकिन हमें याद रहे कि देश की करीब आधी आबादी प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर खेती व उससे जुड़े व्यवसायों पर निर्भर है। अत: खेती को लाभकारी बनाने की जरूरत है। कोई बीच का रास्ता किसान असंतोष को दूर करने के लिये उठाया जा सकता है। दरअसल, किसान आंदोलनकारी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने , खेतिहर मजदूरों के लिये पेंशन, कृषि ऋण माफी, डब्ल्यूटीए से हटने, किसानों पर दर्ज मुकदमें वापस लेने, लखीमपुर खीरी कांड के पीड़ितों को आर्थिक मुआवजा देने की मांग कर रहे हैं।
विडंबना है कि आंदोलन की शुरुआत से पहले किसानों से केंद्रीय मंत्रियों की मैराथन वार्ता बेनतीजा रही। जिसके बाद किसान नेताओं ने दिल्ली कूच करने के फैसले को अंतिम रूप दिया। दरअसल, किसान भी जानते हैं कि देश में जब आम चुनाव सिर पर हैं तो केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिये कानून बनाने का उनका सबल आग्रह है। निस्संदेह, किसी भी संगठन को आंदोलन करने का संवैधानिक अधिकार है। लेकिन प्रयास होना चाहिए कि आंदोलन हिंसक रूप न ले और आंदोलन योजनाबद्ध ढंग से तार्किक परिणति तक पहुंचे। किसानों के मुद्दे अपनी जगह हैं लेकिन किसानों को रोकने के लिये सरकारों द्वारा की गई व्यूह रचना से आम लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। हरियाणा के कई जिलों में इंटरनेट सेवाएं बंद पड़ी हैं। शासन-प्रशासन ने यात्रियों के लिये जो वैकल्पिक मार्ग तय किये हैं, यात्री उनमें भटक रहे हैं। दिल्ली की नाकेबंदी के चलते भयंकर जाम की स्थिति बन गई है और लोग तीन-चार घंटे तक जाम में फंसे रहे हैं। कई स्थानों पर किसानों को लेकर लोग आक्रोश व्यक्त करते रहे। परिवहन व्यवस्था सुधारने के बाबत सुप्रीम कोर्ट की तरफ से भी प्रतिक्रिया आई है। निस्संदेह, किसानों को अपनी जायज मांगें रखनी चाहिए, वहीं सरकार को भी किसानों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील व्यवहार दिखाना चाहिए। आंदोलन पर राजनीतिक दलों की टिप्पणियों के बाद देश के शेष जनमानस में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि आंदोलन के मूल में राजनीतिक निहितार्थ हैं। वहीं किसानों को भी आने वाले समय में खेती में आने वाली चुनौतियों को भी नजर में रखना चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग, भूजल संकट और अन्य खामियों को दूर करने समेत दीर्घकालीन लक्ष्यों के लिये प्रयास तेज करने चाहिए। केंद्र सरकार को भी सोचना चाहिए कि जिस कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन को इसी माह भारत रत्न दिया गया है, उसी की सिफारिशों को लागू करने में विलंब क्यों हो रहा है।

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