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विदाई

11:36 AM Jun 18, 2023 IST

राजेंद्र कुमार कनौजिया

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‘मेरा कुछ सामान छूट गया।’

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वो फिर गाड़ी से उतर कर, वापस घर में आकर अपने कमरे में चली गईं। कमरे का दरवाज़ा बन्द हो गया। थोड़ी देर रुकने के बाद राजेश ने कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई, बस धीरे-धीरे मां के खर्राटे की आवाज़ आ रही है, बिलकुल निश्चिंत से खर्राटों से कमरे में मां के सोने की आवाज़ आ रही थी।

बाहर गाड़ी में सारा सामान रखा जा चुका है, लोग तैयार होकर इंतज़ार कर रहे हैं। मां को आज जाना था, कमरा तय किया जा चुका है, पैसे दिए जा चुके हैं। सुबह से मां बार-बार गाड़ी तक जातीं, फिर उतर कर घर में वापस आ जातीं, मेरा कुछ सामान छूट गया, कुछ रह गया, मैं वो लेकर आई, ये लेकर आती हूं। पता नहीं, मां बहाने बना रही हैं या सच में कुछ है जो छूट गया, छूट रहा है। कुछ समझ नहीं आ रहा।

नये-पुराने कपड़े, दवाइयां, खाने-पीने का सामान, भजन-संगीत से भरा रिकार्ड्स प्लेयर, चश्मा, छतरी और भी न जाने क्या-क्या। सब घर में वापस आ गये थे, रिश्तेदार चले गये, पड़ोसी भी भुनभुना कर लौट गये।

‘ये भी कोई बात है, और भी काम होते हैं सभी को, रोज़-रोज़ का क़िस्सा हो गया है।’

‘पता नहीं क्या चाहते हैं ये बुजुर्ग लोग, इतना कुछ तो करते हैं, बच्चे, फिर भी।’

जितने मुंह, उतनी बातें। जितने लोग उतनी सलाह, उतने मशविरा।

आज जब कहानी लिखने बैठा हूं, तब बहुत सारी मांयें, बूढ़े बाप घर के बाहर, किसी ओल्ड एज होम के बाहर, इस बात के इंतज़ार में बैठे हैं, कोई उनके पास आकर वापस घर ले जायेगा, बहुत-सी मांयें, बाप कहीं बस अड्डे, रेलवे स्टेशनों, एयरपोर्ट के बाहर टकटकी लगाये बैठे हैं, एक अनंत इंतज़ार में बैठे हैं। हज़ारों घरों, लाखों कमरों के नये-पुराने घरों में इनके लिये कहीं कोई जगह नहीं।

बड़ी बुआ चुपचाप उठकर ड्राइंग रूम में बैठ गई। राजेश उनके पास ही बैठ गया, उसकी बहू चाय ले आई।

‘क्या ये ज़रूरी है, बेटे।’

एक शून्य-सा कमरे की हवा में फैल रहा है।

कोई जवाब नहीं दिया उस कमरे की दीवारों ने, बस चुपचाप सिर झुकाए चारों कोनों को सम्भाले खड़ी रहीं। दीवार पर कहीं कहीं नमी-सी दिख रही है, जैसे रो रही है।

सवाल ने कमरे, घर में नज़रें दौड़ाई।

हर ओर ही उनकी छाप है, कमरा उनकी यादों से ही पटा पड़ा है, दीवारें, छत, रोशनदान, खिड़कियां सब उनके साथ ही अपना जीवन जीती रहीं। जब वो तकलीफ़ में होतीं तो जैसे सारा घर उनके साथ ही रोता-बिलखता। जब वो सज-धज कर राजेश के पिता, तीन बच्चों के साथ किसी त्योहार पर लता मंगेशकर के गानों पर डांस करतीं, झूमतीं, हंसती, खिलखिलातीं तो मानो पूरा घर अपनी छत, दीवारों के साथ खिलखिलाने लगता, बाहर लगे पेड़, लतायें झूम उठतीं। लगता जैसे आज ही होली है, आज ही दीवाली है। दशहरा है।

राजेश के पिता जगदीश, बहुत ख़ूबसूरत थे, लम्बे-तगड़े, सुर्ख़ सफ़ेद। गेटवे ऑफ इंडिया पर एक कोने में बैठकर आते-जाते लोगों के स्केच बनाते, बेचते। शाम तक बैठते, फिर चले जाते।

तब रागिनी वहीं पास में कॉलेज जाती, फिर दोस्तों के साथ कभी गेटवे ऑफ इंडिया घूमने जाती, जहां देर तक बैठकर जगदीश को तस्वीर बनाते देखा करती। बात आज़ादी के आसपास के ही कुछ दिनों की है, बंटवारे की कड़वाहट गई नहीं थी, लोग दोनों तरफ़ से मारे गये थे, गुमशुदा थे। जो उधर चले गये वो उधर की ज़मीन में जड़ें जमाने लगे, जो यहां रह गये उन्हें भी दो वक़्त की रोटी के लिये जद्दोजहद करनी पड़ रही थी।

दिन में जगदीश स्केच बनाता शाम को एक फ़ैक्टरी में नाइट शिफ़्ट में काम करता। उसका परिवार मां-बाप, दो भाई, एक बहन के साथ ही मुम्बई के किसी चॉल में रहते थे। रागिनी लगभग हफ़्ते में दो दिन तो अपना स्केच बनवाने बैठ जाती थी, वो हंसता पर नया स्केच बना देता वो स्केच बनाने के पैसे देती और खिलखिलाते हुए चल देती। रागिनी के पिता सरकारी प्रिंटिंग प्रेस में काम करते, मां घर सम्भालती, छोटी बहन स्कूल जाती थी।

बुआ की बातें सब लोग ध्यान लगाकर सुन रहे थे, मां का कमरा बन्द था कोई हलचल नहीं। कभी-कभी खर्राटे ज़रूर सुनाई पड़ते।

‘तेरी मां और मैं एक ही स्कूल में पढ़ाई करते थे। हम रोज़ बस से स्कूल जाते फिर वहीं गेटवे ऑफ इंडिया पर तफ़री करते।’

रात हो रही है, मां ने सुबह से खाना भी नहीं खाया है, खाना लेकर बुआ ने काफ़ी देर तक दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन कोई हलचल नहीं हुई। अब मां जाग तो चुकी है, कमरे में से कुछ आवाज़ें आ रही हैं, मां चहलक़दमी कर रही हैं लेकिन बस बात नहीं कर रही।

घर के बाक़ी लोगों ने खाना खा कर सोने की तैयारी कर ली थी, सारा दिन वैसे ही बातचीत, बहस और समझाने-बुझाने में ही बीत गया था।

‘वैसे माना कि भाभी थोड़ी परेशान करती है, बीमारी में शोर मचाती है, लेकिन यूं उन्हें घर से ओल्ड एज होम भेज देने की बात समझ में नहीं आई।’ बुआ ने बिस्तर पर लेटे-लेटे ही पूछा।

‘नहीं हम कोई पत्थर दिल नहीं हैं, जो मां को इस उम्र में तकलीफ़ दें, लेकिन हम लोग भी थक गये उनकी सेवा करते-करते।’ बेटा बोल रहा है।

‘लेकिन वो खुद बीमार है, ठीक से दिखता नहीं, शुगर की बीमारी है, ऐसे में अकेले कैसे रहेंगी।’ बुआ की तकलीफ़ साफ़-साफ़ नज़र आ रही है।

‘लेकिन उनको कितनी बार समझाने की कोशिश की, जब बच्चे पढ़ रहे हैं, वो उनके कमरे में जा कर बैठ जाती हैं, उनसे बातें करने लगती हैं, बच्चे भी अब बड़े हो गये हैं, उनकी भी प्रॉब्लम है, पढ़ाई का प्रेशर रहता है, नंबरों की मारामारी, स्कूल का, घर का प्रेशर, बच्चे रियेक्ट कर जाते हैं।’ बहू ने समझाने की कोशिश की।

बुआ की समझ में नहीं आ रहा, किसका साथ दे। ‘लेकिन चाहे जो भी हो इस उम्र में उनके लिये कितना मुश्किल होगा, पता है तेरे पिता जी से शादी के लिये रागिनी का तेरे नाना जी से बहुत झगड़ा हुआ था। तेरे पिता अपना ही खर्च नहीं उठा पाते थे, फिर तेरी मां की ज़िद पर तेरे पिता ने कुछ छोटे-मोटे काम तो किये, लेकिन सफलता नहीं मिली, तेरी मां ने सिलाई शुरू की, ट्यूशन पढ़ाने लगी, लेकिन बात बन नहीं रही थी, कुछ दिन के प्यार का खुमार उतरने लगा था।’

‘हमें ये सब पता है, फिर पिता जी, विदेश किसी गल्फ़ देश में काम ढूंढ़ने चले गये। देखिये बुआ ये सारी बात ठीक है, लेकिन वक़्त बदल गया है, जब तक बच्चे छोटी क्लास में पढ़ रहे थे सब ठीक था, अब मुश्किल होने लगी है।’

‘पिता जी के बारे में हमें ये पता है, विदेश से वो ठीक-ठीक पैसे भेजने लगे, घर सम्भल गया था।’

रात का खाना तैयार हो गया था, मां के कमरे में आवाज़ आ रही है, जैसे कुछ सामान इधर से उधर कर रही हैं वो।

‘अपनी मां को बुला ले, बहुत देर से भूखी-प्यासी होगी, ज़िद्दी है। तेरे नाना से बग़ावत कर बैठी थी। ऐसे ही कमरे में बन्द कर लिया था, न खाना न पानी। तेरे नाना क्या करते तीसरे दिन दरवाज़ा खोलना ही पड़ा। फिर तेरे नाना ने बात मानी, लेकिन फिर पिता जी ने तेरी मां से कभी बात नहीं की। तेरी मां के जीवन में थोड़ा-सा सुख तेरे साथ ही मिला, इस उम्र में केवल छत या दो वक़्त का खाना नहीं चाहिए बेटा, बच्चों का प्यार, परिवार की देखभाल भी ज़रूरी है, मुझे नहीं पता कैसे रहते हैं लोग वहां, लेकिन बच्चों की तो आवाज़, उनका दुलार कहां मिलेगा वहां।’ बुआ थोड़ी भावुक हो रही थी। उन्होंने डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठकर कहा।

दरवाज़ा खटखटाया गया, कई बार खटखटाया गया, मां बाहर नहीं आई। सब बाहर इंतज़ार कर रहे थे।

‘मां ने दवा भी खानी है, बाहर तो बुलाना ही पड़ेगा।’ अब तक चुप बहू बोल पड़ी।

‘आप बाहर बुला लो, कहीं नहीं जायेंगी मां, यहीं ड्राइंगरूम में रह लेंगी। उनके बिना तो अब बच्चे भी नहीं रह पायेंगे, वो रहती हैं तो रौनक़ रहती है।’ राजेश फिर से दरवाज़ा खटखटाने लगा।

बहू ने प्लेट लगाना शुरू कर दिया।

राजेश थक-हार कर वापस कुर्सी पर बैठ गया। ‘लेकिन बाबू जी कहां रह गये, कभी मिले नहीं, पहले सुनते थे वो गल्फ़ से पैसे कमाकर वापस आ रहे हैं, फिर अचानक सब शांत हो गया। क्या हुआ था तब, मां ने कुछ नहीं बताया।’

‘क्या बताती, हम लोग जगदीश के आने की खबर सुनकर उसे लेने एयरपोर्ट गये थे। जहाज़ तो आया, लेकिन जगदीश की जगह उसके एक दोस्त ने तेरी मां को काफ़ी सारा पैसा दिया और चला गया। उसने सिर्फ़ इतना कहा वो काम पूरा करके जल्दी ही आयेंगे।’ बुआ उठकर कमरे के पास आ गई।

कमरे के दरवाज़े से कान लगाया। ‘जाग रही है, कुछ कर रही है शायद, रुको बाहर बुलाती हूं।’

वो दरवाज़े के पास जा कर बोलीं, ‘ओय दीदी देखो तो कौन आया है, विदेश से, तुम्हें बुला रहा है।’

अंदर बिलकुल सुई-पटक सन्नाटा है, लेकिन दरवाज़े के पास तेज सांसों की गर्मी-सी महसूस हो रही है। उलझन से भरे पलों की कसमसाहट दरवाज़े के नाज़ुक पल्ले पर थरथराहट पैदा कर रही है।

‘रागिनी बाहर आ जा, जल्दी कर।’ बुआ की बात भी पूरी नहीं हुई थी कि दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनाई पड़ी।

सबकी नज़र उधर घूम गई। सब हड़बड़ा कर उठ गये, सामने सुर्ख़ लाल जोड़े में सजी रागिनी बाहर निकल आई। बूढ़े चेहरे, कांपते हाथ, डगमगाते पैर, लेकिन वही उम्मीद की चमक।

‘अरे कोई मंगल गीत तो गाओ, इतने दिनों बाद तेरे पिता जी आ रहे हैं, हमसे मिलने। मुझे अपने साथ ले जाने आया है मेरा आर्टिस्ट, कहां छुपा दिया तुमने। कुछ पका तो।’

मां ने बुआ की ओर देखा, उनकी आंखें नमी और उत्साह से भरी हैं। उन्होंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। फिर एक प्रश्न कमरे में फैल गया। एक भयावह सच जिसका सामाना कोई नहीं कर पाया।

कई दिन बीत गये हैं, सब कुछ सामान्य हो गया। मां घर में ही ख़ुशी-ख़ुशी रहती हैं, लेकिन थोड़ी उदास।

मैंने कुछ दिन के बात बुआ से फ़ोन पर बात की थी। पूछा था, पिता जी कहां रह गये, जिनका इंतज़ार अब भी मां करती हैं। उम्मीद की एक नाज़ुक डोर है जो उनको अतीत के सच से जोड़े रखती है। क्या कुछ सच है या वहां कुछ भी नहीं।

ये कहानी यहां भी समाप्त हो सकती है। आगे किसी और मां, पिताजी या किसी और परिवार से नई कहानी उपज सकती है। क्या पता दूर देश गये लोगों ने वहां ही अपना घर बसा लिया हो, या मर-खप गये हों, समय के चक्र में दूसरी ओर विलुप्त हो गये हों, क्या बतायें।

लेकिन एक उम्मीद, जो इस ओर रह गये मन में पनपती रहती है कि कभी कोई दरवाज़ा खटखटाया गया तो वहां दूसरा मिले ही नहीं। फिर क्या होगा।

आप थोड़ी देर आराम करें मैं देख कर आता हूं कि मां भूखी तो नहीं सो गईं, आप को भी एक बार देख लेना चाहिए।

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