लोकतंत्र का प्रहसन
यह अटपटा सा लगता है जब भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ा कानून का अधिकारी यानी अटॉर्नी जनरल कहे कि जनता को राजनीतिक दलों के चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं है। लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा है ‘जनता का शासन, जनता के द्वारा और जनता के लिये।’ इस सूत्र-वाक्य से ये कहीं स्पष्ट नहीं होता है कि जनता से ऊपर राजनीतिक दलों का स्थान है। मौजूदा लोकतांत्रिक विसंगतियों व विद्रूपताओं के चलते आज स्थिति यह उत्पन्न हो गई है कि राजनीतिक दल अपने श्वेत-स्याह चंदे के स्रोतों पर जनता से परदादारी कर रहे हैं। इतना ही नहीं, चुनावी बॉन्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में होने वाली सुनवाई से कुछ दिन पहले अटॉर्नी जनरल ने यहां तक कह दिया कि सुप्रीम कोर्ट को भी नीतिगत मुद्दों पर फैसला देने का अधिकार नहीं है। इसी घटनाक्रम के आलोक में यहां उल्लेखनीय है कि देश की शीर्ष अदालत ने समय-समय पर ऐसी व्यवस्थाएं दी हैं, जिससे देश में पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया का मार्ग प्रशस्त हो सका है। ऐसे ही ऐतिहासिक आदेश राजनीति में दागी जनप्रतिनिधियों पर अंकुश लगाने की दिशा में दिये गए हैं। उल्लेखनीय है कि शीर्ष अदालत द्वारा वर्ष 2003 में दिये गए एक मार्गदर्शक फैसले ने हर दागी प्रत्याशी को बाध्य किया था कि वह अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि का विवरण सार्वजनिक करे। इस बाबत कोर्ट का कहना था कि यह जानना मतदाता का हक है। कमोबेश यही स्थिति चुनावी चंदा जुटाने के बाबत भी मानी जानी चाहिए। लोकतंत्र की शुचिता इस बात पर निर्भर करती है कि चुनाव की प्रक्रिया में खर्च होने वाला धन कानूनसम्मत स्रोतों से ही मिला हो। यह भी पता हो कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने किन व्यापारिक घरानों तथा उद्योगपतियों से चंदा जुटाया है। ताकि भविष्य में सरकार बनाने पर राजनीतिक दल द्वारा चुनाव के दौरान लिये गए चंदे के एवज में जनता के हितों की कीमत पर लाभ पहुंचाने की कोशिश न की जा सके।
उल्लेखनीय है कि जब संसद में चुनावी बॉन्ड के प्रावधान को कानून का रूप देने का प्रयास किया जा रहा था तो तत्कालीन वित्तमंत्री की दलील थी कि इस कानून के अस्तित्व में आने से जहां चुनाव के लिये चंदा जुटाने में पारदर्शिता आएगी, वहीं भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाया जाएगा। लेकिन एजी के बयान से तो कम से कम वह मंशा जाहिर नहीं होती है। निस्संदेह जनता को पता होना चाहिए कि किस राजनीतिक दल ने किस कॉर्पोरेट घराने से कितना चंदा लिया है। इसमें दो राय नहीं कि कॉर्पोरेट घराने भी सत्ता की हवा भांपकर उसी अनुरूप चंदा देते हैं। एक तरह से यह उनका आर्थिक निवेश ही होता है, ताकि कालांतर लोकतंत्र में पूंजीतंत्र का पोषण हो सके। यहां उल्लेखनीय है कि चुनावी बॉन्ड को लेकर कानूनी प्रावधान है कि चंदा देने वाला व्यक्ति डिजिटल पेमेंट करके एसबीआई के बॉन्ड खरीदता है। कानून के अनुसार राजनीतिक दल व बैंक चंदा देने वाले का नाम उजागर करने के लिये बाध्य नहीं हैं। इसकी वजह से केंद्र सरकार की वित्तीय नियामक संस्थाओं को पता होता है कि कहां से चंदा आया। जिसके चलते सरकार तो जान सकती है कि विपक्षी दल के पास चंदा किस स्रोत से आया है, लेकिन विपक्ष यह नहीं जान सकता कि सरकार को कितना चंदा मिला है और किससे मिला है। जाहिर है इसका लाभ सत्तारूढ़ दल को मिलता है। साथ ही चंदे की ज्यादा मात्रा भी उसके खजाने में आती है। यही वजह है कि कहा जा रहा है कि सत्तारूढ़ दल को कुल चंदे का दो तिहाई हिस्सा मिला है। कह सकते हैं कि इस प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी झलकती है। बहरहाल, लोकतंत्र की शुचिता इस बात पर निर्भर करती है कि किस तरह संसाधनों से चुनावी प्रक्रिया संपन्न हुई है। जाहिरा तौर पर नियम विरुद्ध और अपवित्र स्रोत से अर्जित धन कालांतर लोकतंत्र की पवित्रता पर आंच ही लाएगा। निश्चित रूप से जनता की जागरूकता व न्यायिक सक्रियता ही चुनावी चंदे के धंधे में पारदर्शिता लाने में सक्षम हो सकती है।