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गिरे पुल के उठे सवाल

12:36 PM Jun 07, 2023 IST
गिरे पुल के उठे सवाल
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यह भ्रष्टाचार में डूबी व्यवस्था का ज्वलंत उदाहरण ही है कि बिहार के भागलपुर में गंगा नदी पर बन रहे पुल जैसे संवेदनशील निर्माण में इतनी धांधली हुई कि एक दशक से बन रहा हजारों करोड़ का पुल बनने से पहले दो बार टूट गया। एक साल पहले पुल के हिस्से के ध्वस्त होने के बाद भी न तो किसी की जवाबदेही तय की गई और न ही किसी को दंड मिला। विडंबना यह कि गत रविवार को 1710 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत वाले पुल का एक बड़ा हिस्सा फिर ढह गया। यदि यह हादसा पुल पर जारी यातायात के बीच होता तो जनधन की हानि का अंदाजा लगाया जा सकता है। उस पर तुर्रा यह है कि बिहार सरकार में शामिल दलों की तमाम दलीलें भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने की हो रही हैं। बेतुकी दलील दी जा रही है कि पुल के डिजाइन में खामी के कारण पुल के एक हिस्से को गिराया गया। इससे पहले सार्वजनिक जीवन में किसी ने इस तरह की दलील नहीं सुनी, यह सिर्फ हादसे के बाद लीपापोती की कवायद है। निश्चय ही घटना विचलित करती है कि हजारों लोगों के जीवन से जुड़े सार्वजनिक निर्माण में किस हद तक हेराफेरी और कमीशन बाजी चलती है कि निर्माण पूरा होने से ही पहले ही वह भरभरा कर गिर जाता है। यह भी कि राजनेताओं और ठेकेदारों के लिये आम आदमी की जिंदगी की कीमत क्या है। बीते साल गुजरात में हुए एक पुल हादसे में आपराधिक लापरवाही से बड़ी संख्या में लोगों के डूबकर मरने की घटना से लगता है हमने कोई सबक नहीं लिया। देश में ऐसी कोई स्वतंत्र व अधिकार संपन्न नियामक संस्था नजर नहीं आती तो सार्वजनिक निर्माण में आपराधिक लापरवाही को पकड़कर दोषियों को दंडित करे। घटना निर्माण कार्य से जुड़े जवाबदेह लोगों की नैतिकता पर भी सवाल खड़ा करती है। यह मामला ऐसे समय में प्रकाश में आया है जबकि देश भयानक लापरवाही से हुई ओडिशा रेल दुर्घटना में सैकड़ों लोगों की मौत के दुख से उबर नहीं पाया है।

निस्संदेह, भागलपुर में गंगा नदी पर बन रहे पुल के एक हिस्से के धंसने की घटना संरचनात्मक निर्माण की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाती है। सवाल यह भी है कि वर्ष 2014 में बनना शुरू हुआ यह पुल 2023 तक भी क्यों नहीं बन पाया है। जिस पुल को लेकर दावे किये जा रहे थे कि इससे यात्रा का समय कम होगा और संपर्क मार्ग आसान होगा, एक दशक होने पर भी उस पुल का निर्माण न तो पूरा हुआ बल्कि जो बना भी है वह भरभरा कर गिर रहा है। पुल निर्माण की सीमा का चार बार बढ़ाया जाना बताता है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के यह संभव नहीं हो सकता। तभी बिहार सरकार में शामिल राजनीतिक दल कुतर्कों के जरिये लीपापोती में लगे हैं। निस्संदेह, बार-बार निर्माण की समय अवधि बढ़ाए जाने से उसकी लागत भी बढ़ जाती है और यह पैसा जनता से उगाहे कर के द्वारा ही चुकाया जाता है। जहां राज्य सरकार मामले में जांच के आदेश दे रही है वहीं सरकार में शामिल एक दल के नेता कह रहे हैं कि इस पुल के डिजाइन में खामी थी और इसे दुरुस्त करने में आईआईटी रुड़की के विशेषज्ञ इंजीनियरों की मदद ली गई थी। दलील दी गई कि पुल के डिजाइन में खामी के चलते इसके एक हिस्से को गिराया गया। सरकार के बाएं-दाएं हाथ की अलग-अलग टिप्पणी संदेह को और गहरा करती है। निस्संदेह, इससे प्रश्न पैदा होता है कि जब डिजाइन में खामी के चलते पुल के एक हिस्से को गिराया गया तो मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश क्यों दिये? जाहिर है मामले में लीपापोती की जा रही है। निस्संदेह यह दुखद स्थिति है कि सच्चाई पर पर्दा डालकर जनहितों से खिलवाड़ किया जा रहा है। सवाल यह भी है कि पुल बनने के बाद यदि ऐसे हादसे होते रहे तो जान-माल की क्षति के लिये कौन जिम्मेदार होगा? या तब भी कोई नया बहाना गढ़कर जिम्मेदारी से बचने का प्रयास किया जायेगा। कायदे से तो सारे मामले की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से करवाकर दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए।

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