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क्रूरता की हद

11:36 AM Jun 01, 2023 IST

दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाके में बीते रविवार एक किशोरी की क्रूरता से की गई हत्या ने पूरे देश को झकझोरा है। निस्संदेह, घटना स्तब्ध करने वाली है लेकिन इस वारदात का दूसरा दुखद पहलू घटना के वक्त पास से गुजरते लोगों का गैरजिम्मेदार व्यवहार है। समाज कितना संवेदनहीन हो चला है कि वहशी दरिंदा किशोरी पर सरेआम चाकू से वार पर वार करता रहा और गुजरते लोग मूकदर्शक बने रहे। अपराधी का मन दर्जनों चाकू के वार करने पर भी नहीं रुका और पत्थर से उसका चेहरा कुचलकर भाग गया। सीसीटीवी कैमरे में दर्ज हृदयविदारक घटना हत्याकांड की भयावहता को उजागर करती है। विडंबना है कि हमारा समाज कितना संवेदनहीन हो चला कि सरेराह निर्ममता से एक बेटी का कत्ल हो रहा होता है और समाज के भीरू लोग ऐसे गुजर रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। काश, एक-दो लोग अपराधी को चुनौती देते और उसका किसी तरह मुकाबला करते तो एक बेटी की जान बच सकती थी। लेकिन लोग आम दिनों की तरह चलते रहे। हो सकता है कि कुछ लोग अपने मोबाइल में घटना को कैद करते रहे हों। आखिर लोग क्यों नहीं सोचते कि हिंसा की यह आग एक दिन उनके अपनों को भी लील सकती है। कहा जा रहा है कि गुनहगार युवक दो साल से इस लड़की के संपर्क में था। किसी हकीकत का भान होने पर लड़की ने उससे दूरी बना ली थी। लेकिन इंसान के नाम पर वहशी दरिंदा कितना हैवान था कि कभी जिस लड़की से प्रेम करने का प्रपंच करता रहा, उसे ही जानवरों की तरह काट दिया। क्या कभी किसी कथित प्रेम संबंध की परिणति ऐसी भयावह हो सकती है? यह नये दौर का वीभत्स प्रेम है कि मन की न हो तो प्रेमिका के टुकड़े-टुकड़े कर दो। देश कुछ समय पहले दिल्ली के हुए श्रद्धा हत्याकांड को नहीं भूला है, जिसमें सहजीवन में रह रही युवती के उसके ही साथी ने पैंतीस टुकड़े करके जंगल में फेंक दिये थे।

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विडंबना है कि ऐसी ही क्रूर घटनाएं शेष देश से भी गाहे-बगाहे सुनने को मिलती रहती हैं। घटनाएं तमाम तरह की सामाजिक विद्रूपताओं पर सवाल उठा रही हैं। सोशल मीडिया पर जो अपसंस्कृति की बाढ़ आई है वह हमारे युवाओं को लील रही है। सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि चौदह साल की उम्र में शुरू हुए अपरिपक्व प्रेम की परिणति क्या हो सकती है? जीवन में प्रेम व संबंधों का आधार परिपक्वता भी होता है। सभी अभिभावक भी चाहते हैं कि बच्चे अपने जीवन के फैसले उस अवस्था में लें जब उनमें परिपक्वता आ जाये। वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों। भारतीय परंपराओं में मां-बाप द्वारा जीवन साथी तय करने का मकसद भी यही था कि कहीं बेटी का कोई कदम उसके जीवन को खतरे में न डाल दे। यदि इसके बावजूद रिश्ते में कोई ऊंच-नीच हो भी तो परिवार उसके लिये एक ताकत की तरह खड़ा रहता है। छोटी उम्र के अपरिपक्व फैसलों से उनके जीवन में आने वाले भूचाल कई निष्कर्षों के रूप में सचेत करते हैं। घटना यह भी सोचने को मजबूर करती है कि किन्हीं प्रेम संबंधों में अलगाव की परिणति इतनी भयावह क्यों होने लगी है। निस्संदेह, आज के समाज में आते खुलेपन के चलते लड़कियां स्वतंत्र फैसले लेने लगी हैं। मगर उन्हें पुरुषवादी अहंकार का मुकाबला करने के लिये सक्षम बनना होगा। कहीं-कहीं यह असंतुलन कालांतर दुखांत में बदलता नजर आता है। बहरहाल, इस सवाल पर भी मंथन करने की जरूरत है कि देश के महानगरों में ऐसे हादसों और सड़क दुर्घटनाओं के वक्त लोग क्यों आंख मूंद लेते हैं? क्या पुलिस-प्रशासन की तरफ से पहल करने वाले लोगों के प्रति होने वाले व्यवहार के चलते तटस्थता अपनायी जाती है? देश के नीति-नियंताओं को सोचना होगा कि समाज की आपराधिक तटस्थता को दूर करने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं। निस्संदेह, विचलित करता सार्वजनिक व्यवहार परेशान करने वाला है। सवाल यह भी है कि देश की राजधानी में बेटियों की सुरक्षा का ये आलम है तो देश के दूर-दराज के इलाकों में क्या स्थिति होगी?

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