सतसई-लेखन परंपरा को विस्तार
चन्द्र त्रिखा
सतसई-लेखन की परंपरा संस्कृत से हिंदी में आई और अब उर्दू में इसे हिंदी-उर्दू के चर्चित शायर डॉ. राणा गन्नौरी ले आए हैं। उनकी शे’र सतसई, इसी परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसमें 700 शे’र संकलित हैं और उनमें अलग-अलग वैचारिक एवं संवेदनशील तेवरों का समावेश है। राणा गन्नौरी ने उर्दू व हिंदी साहित्य और सरायकी भाषा को जो विलक्षण देन दी है, उसका मूल्यांकन भी फिलहाल समग्र रूप से संभव नहीं है। एक ओर वह अदीबों से मुखातिब हैं, मगर अलग-अलग रूप में :-
गर तू अदीब है, तो अदब का लिहाज़ रख
रखते हैं सब उम्मीद अदब की, अदीब से।
अदब से पेश आओ उससे ‘राणा’
भरोसा कुछ नहीं उस बेअदब का।
एक और शब्दावृत्ति है :-
शब्दावृत्ति
है उन्हें नाज़, नाज़ पर अपने
और मुझे नाज़, नाज़ उठाने पर।
दूसरी ओर अलग तेवर हैं :-
शिकस्त ख़त
ऐसे शिकस्त ख़त में है लिक्खा गया मुझे
कोई पढ़ा लिखा भी नहीं पढ़ सका मुझे
एक अलग किस्म की भाव भंगिमा देखें :-
शृंगार रस
तमाम जिस्म में बिजली-सी एक दौड़ गई
वह कौन गुज़रा है ‘राणा’ मिरे बराबर से
इसी के साथ ही ‘राणा’ का बिल्कुल अलग मिज़ाज़ है :-
सांसों का बोझ
जीना कोई कहे तो कहे इसको, अस्ल में
सांसों का बोझ है जो उठाए हुए हैं, लोग
ग़ज़ब के सृजक हैं राणा गन्नौरी। यह प्रयोग भी अद्भुत है और कृति भी पठनीय है।
पुस्तक : शे’र सतसई लेखक : डाॅ. राणा प्रताप सिंह ‘राणा’ गन्नौरी प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली पृष्ठ : 160. मूल्य : रु. 220.