हर नागरिक को व्यवस्था से असहमति का हक
सन् 2015 की बात है। देश के कुछ साहित्यकारों-कलाकारों ने देश में बढ़ती असहिष्णुता से दुखी होकर साहित्य अकादमी द्वारा दिये गए सम्मानों को लौटाने की घोषणा कर दी थी। ये रचनाकार एम.एम. कलबुर्गी, गोविंद पानसरे, दाभोलकर जैसे लेखकों की हत्या से आहत थे और इस बात से दुखी थे कि साहित्य अकादमी जैसी संस्था देश और समाज में फैली असहिष्णुता को लेकर चिंतित और परेशान क्यों नहीं है। कुल मिलाकर 39 लेखकों ने सम्मान लौटा कर अपना क्षोभ व्यक्त किया था। उनके इस कदम को सरकार के विरुद्ध ‘गढ़ा हुआ विरोध’ अथवा ‘मैन्युफैक्चर्ड प्रोटेस्ट’ कह कर सरकार के पक्षधरों ने स्वतंत्र भारत में अपने ढंग के इस अनोखे विरोध को बदनाम करने की कोशिश की थी, पर रचनाकारों के इस कदम की गूंज दूर-दूर तक पहुंची थी। सरकार के समर्थकों ने अवॉर्ड लौटाने वाले रचनाकारों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ का नाम दिया। आज भी इस बात को गाहे-बगाहे दोहरा लिया जाता है।
भले ही अवार्ड वापसी को ‘राष्ट्र-विरोधी कृत्य’ कह कर इसे बदनाम करने अथवा महत्वहीन बताने की कोशिश हुई हों, पर आठ साल बाद सरकारी पुरस्कारों-सम्मानों के संदर्भ में नये नियम बनाने की सरकार की तैयारी इस बात का प्रणाम है कि इस घटना ने समूची व्यवस्था को कहीं भीतर ही हिला दिया था। संसद की परिवहन, पर्यटन और सांस्कृतिक समिति ने सरकार के सामने सुझाव रखा है कि सम्मान लौटाने के ऐसे कृत्य को देश-विरोधी कार्रवाई माना जाना चाहिए। इस सिफारिश में यह भी कहा गया है कि सरकारी पुरस्कार पाने वाले रचनाकारों से इस आशय का शपथ-पत्र लिया जाये कि वे इसे लौटाने जैसी कार्रवाई कभी नहीं करेंगे। यह संयोग की बात है कि इस समय देश मणिपुर जैसे हालात से गुज़र रहा है और संसद में, और सड़क पर भी, यह मुद्दा गरमाया हुआ है, इसलिए सरकारी सम्मानों के अपमान के नाम पर अवार्ड वापसी जैसे कृत्य से संबंधित इस सुझाव पर अपेक्षित चर्चा नहीं हो पा रही। लेकिन, सरकारी सम्मानों को ‘राष्ट्रभक्ति’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ से जोड़कर देखने की यह मानसिकता जनतांत्रिक मूल्यों और विरोध करने के जनता के अधिकार का नकार ही है। इस गैर-जनतांत्रिक कार्रवाई का विरोध होना ही चाहिए।
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा जलियांवाला बाग कांड के संदर्भ में उठाया गया कदम एक ज्वलंत उदाहरण की तरह हमारे सामने है। वर्ष 1919 में जलियांवाला बाग में ब्रिटिश जनरल डायर द्वारा किये गए वहशियाना नर-संहार के विरोध में तब नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कवींद्र रवींद्र ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गयी ‘सर’ की उपाधि को लौटाकर देश के गुस्से और पीड़ा को स्वर दिया था। गुरुदेव ने उपाधि लौटाते हुए कहा था, ‘आज वह समय आ गया है जब सम्मान के पदक हमारी शर्म उजागर कर रहे हैं’ तब गुरुदेव ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जलियांवाला बाग में ब्रिटिश सरकार की कार्रवाई मनुष्यता को शर्मसार करने वाली घटना है और वे ऐसी घटना के लिए जिम्मेदार सरकार द्वारा दिये गये सम्मान को लौटाना ज़रूरी समझते हैं। उन्होंने कहा था, ‘अगर सरकार के प्रति निष्ठा अंतरात्मा की आवाज़ से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है तो जनतंत्र और विचारों की स्वतंत्रता का बने रहना संभव नहीं है।’
भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता की यह स्पष्टोक्ति बहुत कुछ कह रही है और बहुत कुछ याद भी दिला रही है। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा जनतांत्रिक मूल्य है जिसकी उपेक्षा कुल मिलाकर जनतंत्र का ही नकार माना जाना चाहिए। साहित्यकारों-कलाकारों को सम्मानित करके सरकारें अपना कर्तव्य ही निभाती हैं। यह दायित्व है सरकार अथवा साहित्य अकादमी जैसी संस्था का कि वह देश की प्रतिभाओं को सम्मानित करे। सम्मान के पदक अथवा सम्मान-राशि के साथ शर्तें जोड़कर इस सम्मान को ही कमतर किया जा रहा है। इस बात की लिखित गारंटी मांगना कि सम्मानित होने वाला जीवनभर उस सम्मान को नहीं लौटायेगा, वस्तुतः सम्मान पाने वाले का अपमान है। सम्मान को स्वीकारना या नकारना व्यक्ति का अधिकार है। सम्मान लौटाने का मतलब देशद्रोह समझ लेना भी उतना ही ग़लत है, जितना ग़लत यह मानना है कि किसी को सम्मानित करके कोई सरकार उस पर अनुग्रह कर रही है।
आज हमारे समाज में असहिष्णुता लगातार बढ़ती जा रही है। देश के शासकों और समाज के नेताओं, दोनों, के लिए यह स्थिति चिंता का विषय होनी चाहिए। ‘अवार्ड वापसी’ ऐसी ही असहिष्णुता के खिलाफ देश की भावनाओं की अभिव्यक्ति थी। ऐसा करने वालों को ‘गैंग’ का नाम देना अपने आप में एक अपराध ही है। यह सही है कि तब सिर्फ 39 लोगों ने अवार्ड वापसी की घोषणा की थी, पर सही यह भी है कि ये 39 जनतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों के लिए लड़े थे। यह बात हमारे शासकों को समझनी होगी कि जनतांत्रिक व्यवस्था में सरकार का विरोध करना देश का विरोध नहीं होता।
देश में फैलती असहिष्णुता को रोक पाने में सरकार की असफलता के विरोध में उठाया गया कोई भी कदम देश के खिलाफ नहीं, देश के हित में ही होता है। स्वस्थ जनतांत्रिक समाज और व्यवस्था में असहमति का अधिकार नागरिक का एक हथियार होता है, उस सब के खिलाफ जो ग़लत हो रहा है। पुरस्कार वापसी या सम्मान वापसी ऐसी ही असहमति का एक उदाहरण है। इस उदाहरण का सम्मान होना चाहिए।
एक सौ चार साल पहले रवींद्रनाथ ठाकुर ने ‘सर’ की उपाधि लौटाते हुए तत्कालीन वायसराय को लिखे पत्र में सरकार की रीति-नीति से असहमति व्यक्त की थी। आठ साल पहले देश के 39 रचनाकारों ने अवार्ड वापसी अभियान चलाकर ऐसी ही असहमति को स्वर दिया था। यह अभिव्यक्ति आज हमारे इतिहास का हिस्सा है। जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए उठाया गया यह असहमति का कदम शर्म का नहीं, गर्व का विषय है। असहमति के इस अधिकार की रक्षा होनी चाहिए। जनतांत्रिक मूल्यों का तकाज़ा है कि असहमति को सम्मान दिया जाये। उम्मीद की जानी चाहिए कि सम्मान कभी न लौटाने की शपथ जैसा बंधन देश और समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जायेगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।