खुशबू तक आने लगी है, कागज के फूलों से
केदार शर्मा
इस युग में शत-प्रतिशत शुद्धता की चाह रखना आकाश कुसुम-सी कल्पना है। इसी कारण सौ टंच वाली शुद्धता से डरता हूं, चाहे मूल्य अधिक ही क्यों न चुकाना पड़े। एक बार पत्नी और बच्चे जिद पर अड़ गए कि साहब विशुद्ध दूध पीना है, विशुद्ध घी खाना है। सो आंखों के सामने दूध दुहते हुए देखकर लाने की मशक्कत करनी पड़ी। दुगुना दाम देकर घी खरीदना पड़ा। परिणामस्वरूप दो दिन बाद ही सबको डायरिया हो गया। वे सब तब माने जब चिकित्सक ने सलाह दी कि ये विशुद्ध घी-दूध सूट नहीं कर रहा है। कोई जमाना होगा जब लोग विशुद्ध सत्य को पचा लेते थे। कितने ही बनावट के उसूल हों, सच्चाई मक्खन की तरह तैर कर ऊपर आ ही जाती थी। पर अब ‘सच्चाई छुपने लगी है बनावट के उसूलों से, खुशबू तक आने लगी है कागज के फूलों से।’
आए दिन चोर-लुटेरों से नाक-कान और गला जख्मी करवाने की खबरें सुनकर अब 24 कैरेट वाले विशुद्ध सोने वाला मोह छूटने लगा है। सोने को लॉकर में सोने के लिए मजबूर कर दिया गया है। यह जमाना न तो विशुद्ध सत्य का है और न ही विशुद्ध असत्य का। इसीलिए महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है, ‘सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यं अप्रियम्।’ यानी अप्रिय सत्य न बोलें। अप्रिय सत्य के ऊपर ऑफर की चाशनी लगते ही वह ग्राहकों के लिए प्रिय सत्य हो जाता है। फिर तो मॉल में माल फटाफट बिकने लगता है। एक के साथ दो फ्री। अब कोई इसे विशुद्ध सत्य समझ ले तो इसे उसका विशुद्ध भोलापन ही कहा जाएगा। क्योंकि फ्री का मूल्य दुकानदार माल में पहले ही जोड़ लेता है। यदि उसे फ्री ही कुछ देना होता तो किसी गुरुद्वारे या मंदिर के बाहर बैठकर लंगर या भंडारा नहीं चला लेता। काहे को इतने चकाचौंध भरे महंगे मॉल में माल सजाता? हालांकि, लोग छद्म सत्य को पहचानने लगे हैं जो नहीं पहचानते वे भी साइबर ठगों के माध्यम से जब उनके या दूसरे लोगों के खाते साफ होते देखते-सुनते हैं तब पहचान जाते हैं।
कहते हैं विशुद्ध सत्य विशुद्ध असत्य के साथ नदी में स्नान कर लौटा पर जल्दबाजी में उन्होंने एक दूसरे वस्त्र पहन लिए। तबसे सत्य असत्य जैसा और असत्य सत्य जैसा नजर आने लगा ।
नत्थू जब पत्नी के साथ साड़ी लेने गया तो दुकानदार ने कहा पांच हजार की है। साथ में ब्लाउज पीस फ्री है। पत्नी के निर्देश पर मैं तो चुप ही रहा पर उसने कहा, ‘भैया थोड़ा कम करो। दुकानदार ने कहा, ‘कम वाली भी है, सौ से लेकर पांच हजार तक की है, दिखाऊं?’ मेरा अंदाज था हजार रुपये तो कम कर ही देगा। पर, जब पत्नी ने कहा, ‘भैया, तीन हजार में देना है तो दे दो।’ ‘बहिनजी कम रहेंगे...’ कहकर ‘ही-ही’ कर हंसते हुए उसने पैक करना शुरू कर दिया। उसके हाव-भाव से पता चल रहा था, मानो वह मन ही मन कह रहा हो, कि चाहे जितनी कोशिश कर लो पर मुझे नहीं जीत सकते।