पिता का विरोध, शारीरिक अवरोध भी नहीं रोक पाया सपनों की उड़ान
यशपाल कपूर/निस
सोलन, 28 सितंबर
जब छठी कक्षा में पढ़ता था तभी से मस्कुलर डिस्ट्रॉफी के लक्षण नजर आने लगे। वह सामान्य बच्चों की भांति दौड़ नहीं पा रहे थे। चलने में दिक्कत महसूस होने लगी। चिकित्सा जांच में पता चला कि मस्कुलर डिस्ट्राफी है। डाक्टर ने पिता को बताया कि आपके बच्चे की उम्र भी कम है और कोई फ्यूचर भी नहीं। पिता ने भी आगे पढ़ाई न करने को कहा, लेकिन वह कहां हिम्मत हारने वाला था। उसने तो शारीरिक अक्षमता को मात देकर आगे बढ़ने का फैसला जो ले लिया था। गांव से उठकर शहर आ गया। वहां ट्यूशन पढ़ाता, अपना खर्च उठाता। कॉलेज में स्कॉलरशिप से इंजीनियरिंग की और गेट में 99.96 परसेंटाइल लेकर फिर दिल्ली आईआईटी में पढ़ाई कर अब डिफेंस रिसर्च डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) दिल्ली में ग्रेड-एफ वैज्ञानिक है। सबसे बड़े ग्रेड- एच से महज दो कदम दूूर। हर एग्जाम में उन्होंने सामान्य श्रेणी से ही सीट हासिल की।
हम बात कर रहे हैं डीआरडीओ दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक शैलेष कुमार रॉय की। उनके संपूर्ण जीवन का संघर्ष हम सभी के लिए प्रेरणादायक हैं, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी कभी हार नहीं मानी और लगातार संघर्ष कर अपने सपनों को साकार किया। मस्कुलर डिस्ट्रॉफी से पीड़ित शैलेष कुमार दो सप्ताह के लिए सोलन के मानव मंदिर में अपने उपचार के लिए आए हैं। यह देश का एकमात्र संस्थान है, जहां मस्कुलर डिस्ट्रॉफी से पीड़ित लोगों का फिजियोथैरेपी, हाइड्रोथैरेपी व अन्य माध्यमों से उपचार किया जाता है। यहां उन्होंने दैनिक ट्रिब्यून से विशेष बातचीत में अपने जीवन के संघर्षों पर बातचीत की।
पढ़ाई के लिए पिता से लड़ाई
उनकी बीमारी के चलते पिता नहीं चाहते थे कि वह आगे पढ़े। इस बात पर पिता-पुत्र की ठन गई। इस पर शैलेष ने शहर का रुख कर लिया। गणित उनका प्रिय विषय था। वह वहां एक कोचिंग सेंटर में गए और अपनी सारी बात बताई, साथ ही मैथ पढ़ाने की इच्छा भी जाहिर की। बालक की प्रतिभा को देखते हुए कोचिंग सेंटर ने उन्हें 1500 रुपए महीना देने की बात कही। 250 रुपए का कमरा किराये पर लिया और छपरा में रहने लगे। खुद स्कूल में नॉन मेडिकल में अपना दाखिला करवाया। 1995-96 में इंजीनियरिंग की परीक्षा में चौथा रैंक हासिल किया। इससे उन्हें 32 हजार रुपए का वार्षिक स्कॉलरशिप मिला, जबकि उनका वार्षिक खर्च 28000 था। उन्होंने स्कॉलरशिप के बूते इलेक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। वर्ष 2000 में उन्होंने 99.96 परसेंटाइल के साथ गेट की परीक्षा क्लीयर की। उनका चयन आईआईटी दिल्ली में हुआ। यहां भी उनकी पढ़ाई स्कॉलरशिप से चली। इसी दौरान उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति व देश के महान वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को सुना और डीआरडीओ में नौकरी करने का मन बना लिया।
2013-14 में उन्होंने इस बीमारी पर विजय पाने के लिए फिजियो थैरेपी शुरू की। वह 8 घंटे ऑफिस और 4 घंटे फिजियोथैरेपी करते थे। संडे को पूरा दिन आराम करते थे। शैलेष कुमार रॉय का विवाह 2007 में नागपुर निवासी संगीता के साथ हुआ। उनकी दो बेटियां हैं।
जन्म एवं शिक्षा
शैलेष कुमार का जन्म बिहार के छपरा जिले के एक छोटे से गांव मकेर में हरेश्वर प्रसाद रॉय और सुशीला रॉय के घर 23 अप्रैल 1978 को हुआ। जन्म के समय वह सामान्य थे। पिता ने गांव के ही राजेंद्र विद्यामंदिर में उनका दाखिला करवाया। पढ़ने में उनकी रुचि थी। जब वह 8-9 साल के थे तो चलने-फिरने में हल्की दिक्कत महसूस होने लगी। वह चलते-चलते गिर जाते थे। छठी कक्षा के दौरन स्कूल में 400 मीटर दौड़ प्रतियोगिता में भाग लिया लेकिन दौड़ नहीं पाए और सभी प्रतिभागियों में वह सबसे पीछे रहे। इस दौरान उनके सभी सहपाठी उन पर हंसे और वह रोने लगे। उनके ही एक अध्यापक ने उनसे कहा कि आप ऐसा काम करो कि आप इन हंसने वाले बच्चों में सबसे आगे हों। यह वाक्य उनके लिए उत्साहवर्धक रहे और उन्होंने मन लगाकर पढ़ाई करने का फैसला लिया। जब उनकी उम्र 10 साल थी तो उन्हें पता चला कि उन्हें डूसैन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी है। चिकित्सकों ने उनके पिता को बताया कि इसकी उम्र 15 वर्ष है। इसका कोई फ्यूचर नहीं है और न ही लाइफ। इससे माता-पिता का हौसला भी पस्त हो गया। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की। पूरे जिला में उनका 10वां रैंक आया। चलने-फिरने व सीढ़ियां चढ़ने में दिक्कत तो थी ही, पिता ने भी बेटे की आगे की पढ़ाई न करवाने का निर्णय लिया।
क्या है संदेश
शैलेष कहते हैं कि अपने मस्कुलर डिस्ट्रॉफी से ग्रस्त बच्चे को लेकर अभिभावक परेशान न हों। उसे कमरे में बंद न करें बल्कि बाहर निकालें, अच्छी शिक्षा दें। जिंदगी में निराश न हो, भगवान है और वह सुनता भी है।