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छोटा सा किरदार भी छू जाता है दिल को

01:36 PM Jun 10, 2023 IST

शान्तिस्वरूप त्रिपाठी

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राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेत्री राजेश्वरी सचदेव बहुमुखी प्रतिभा की धनी कलाकार हैं। वह अभिनेत्री, गायक, नृत्यांगना के साथ ही कार्यक्रम संचालक भी हैं। बचपन में ‘सफेद कुंडली’ नाटक में भीड़ का हिस्सा नजर आने वाली राजेश्वरी सचदेव ने सोलह साल की उम्र में मराठी फिल्म ‘अयात्या घरात घरोबा’ में नायिका बनकर आयी थीं। फिर 18 वर्ष की उम्र में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ में अभिनय कर हंगामा बरपा दिया था। फिर श्याम बेनगल निर्देशित फिल्म ‘सरदारी बेगम’ में सकीना का किरदार निभाकर सर्वश्रेष्ठ सह कलाकार के राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल कर राजेश्वरी ने अपनी अभिनय क्षमता जता दी थी। अब तक 32 साल के अपने कैरियर में राजेश्वरी सचदेव उत्कृष्ट निर्देशकों व कलाकारों के साथ लगभग चालीस फिल्मों और 14 टीवी सीरियलों में अभिनय कर चुकी हैं। हाल ही में उनकी फिल्म ‘चिड़ियाखाना’ प्रदर्शित हुई है,जिसमें वे बिहारी सिंगल मदर बिभा के किरदार में है। राजेश्वरी सचदेवा से हुई बातचीत।

क्या घर के माहौल की वजह से आपने बहुत छोटी उम्र से ही अभिनय करना शुरू कर दिया था?

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शायद मेरी तकदीर में अभिनेत्री बनना लिखा हुआ था। क्योंकि मेरा जन्म ही कला जगत से जुड़े परिवार में हुआ था। मेरे माता-पिता ने मुझे पांच साल की उम्र से ही भरत नाट्यम सिखवाना शुरू कर दिया था। मेरी गुरु थी राज राजेश्वरी दास। फिर चौदह साल लगातार डांस किया। मेरे पिता शौकिया ‘इप्टा’ से जुड़कर नाटक किया करते थे। रिहर्सल में मैं और मेरा भाई अपने पिता के साथ जाया करते थे। इस बीच हम कैफी आजमी द्वारा शुरू किए गए ‘इप्टा बाल मंच’में नाटक करने लगे थे। एमएस सथ्यू के साथ ‘बकरी’ किया। शबाना आजमी के नाटक ‘सफेद कुंडली’।

सही मायनों में अभिनय की शुरुआत कब हुई?

पंद्रह साल की उम्र में मराठी फिल्म ‘अयात्या घरात घरोबा’ में अभिनय किया था। हाई स्कूल की परीक्षा खत्म होते ही मुझे इस मराठी फिल्म का ऑफर मिल गया था। केंद्रीय किरदार था। स्कूल में मराठी पढ़ी थी। पर मराठी अच्छे से सीखनी पड़ी थी। प्रशांत दामले सहित कई दिग्गज कलाकारों के साथ काम किया।

हिंदी फिल्मों में शुरुआत कब हुई थी?

श्याम बेनेगल अंकल की वजह से। मेरे पिता उनके साथ ‘डिस्कवरी’ में काम कर चुके थे,इस कारण एक बार हमारी मुलाकात हुई थी। एक दिन उन्होंने मेरे घर पर फोन किया कि क्या मैं उनकी फिल्म में अभिनय करना चाहूंगी? अब श्याम बेनेगल अंकल से न कहना संभव ही नहीं था। उन्होंने फिल्म ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ में मुझे जमुना का किरदार दे दिया। फिल्म सफल हो गयी। फिर मैंने अंग्रेजी फिल्म ‘लिटिल बुद्धा’ की। फिर 1996 में श्याम बेनेगल के निर्देशन में फिल्म ‘सरदारी बेगम’ की। इस फिल्म ने मुझे सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार दिला दिया। उसके बाद मैंने श्याम बेनगल के साथ कई फिल्में व सीरियल किए। दूसरे फिल्मकारों के साथ भी काम किया और लगातार काम कर रही हूं।

32 वर्ष के कैरियर में टर्निंग प्वाइंट क्या रहे?

एक नहीं, ढेर सारे रहे हैं। सभी को सिलसिलेवार बताना थोड़ा मुश्किल है। मैं फिल्मों के साथ साथ नाटक व टीवी भी कर रही थी। टीवी पर एक काउंट डाउन शो ‘सुपरहिट मुकाबला’ आया था। इसमें लोहड़ी का एपीसोड कर लिया। गाना भी गा दिया। फिर मेरे पास कई संगीत कंपनियों से उनकी कंपनी के संगीत अलबमों के लिए गाने के ऑफर आ गए। मैंने कुछ तो मना कर दिए। फिर जब मेरे पास मैग्नासाउंड से आफर आया तो स्वीकार कर लिया। खैर,नक्श लायलपुरी ने मेरे लिए गाना लिखा। संगीतकार ने हिम्मत दी और गाना हिट हो गया। मैंने सोचा कि मुझे गायन में भी कोशिश करनी चाहिए। मैंने एक गाना कुलदीप सिंह के साथ गाया। तो मेरे दो-तीन अलबम आ गए। उसके बाद मैं फिर से अभिनय में व्यस्त हो गयी। फिल्म व टीवी में व्यस्त होने के चलते मैंने लंबे समय से नाटक किया नहीं था। उन दिनों मैं सीरियल ‘बालिका वधू’ की शूटिंग कर रही थी। तभी मुझे लिलेट दुबे ने म्यूजिकल नाटक ‘गौहर जान’ का ऑफर दिया, जिसमें मुझे गाना भी गाना था। इस नाटक को करके बहुत मजा आया। फिल्म ‘हरी भरी’ में अपने लिए गाना गाया था। अब ‘चिड़ियाखाना’ में भी कुछ गुनगुनाया है।

पिछले दिनों आपने नेटफ्लिक्स की फिल्म ‘नजरंदाज’ में छोटा सा किरदार निभाया, जिसके लिए आपने डेढ़-दो माह भाषा व लुक को लेकर मेहनत की थी?

जी हां! यह बहुत मजेदार फिल्म है। कई बार ऐसा होता है कि स्पेशल अपीयरेंस का छोटा सा किरदार होता है,जिसे सुनकर अंदर से आवाज आती है कि इसे तो करना ही पड़ेगा। ‘नजरंदाज’ में यही अहसास था। इस फिल्म में अपना सीन पढ़ा तो उसे निभाने की उत्सुकता बढ़ गयी। यह एक महिला है,जो अपने पूर्व प्रेमी से बीस-बाईस वर्ष बाद पुनः मिलती है। पता चला कि इसे गुजरात के कच्छ इलाके में फिल्माया जाना है। जहां के लोग कच्छी भाषा बोलते हैं। मेरा संवाद चार-पांच लाइन का था। कुछ दोस्तों से वह लाइनें बोलना मैंने सीख लिया। जब मैं सेट पर पहुंची, तो मुझे 25 साल बाद कुमुद मिश्रा जैसे प्रतिभाशाली कलाकार के साथ काम करने का अवसर मिल रहा था। पर भाषा को लेकर काफी सतर्क रहना पड़ता था।

‘चिड़ियाखाना’ करने की क्या वजह रही?

मैंने इससे पहले मनीष तिवारी संग फिल्म ‘इसक’ की थी। उस वक्त हमारे बेटे गोद में थे। और हम इसकी शूटिंग करने बनारस गए थे। इस फिल्म में रवि किशन भी थे। मैंने मनीष तिवारी के साथ यह फिल्म करते हुए काफी इंज्वॉय किया था। ‘इसक’ में मेरा किरदार भी अच्छा ही था। मैंने ‘चिड़ियाखाना’ की कहानी पढ़ी,तो कहानी बहुत अच्छी लगी। फिल्म की कहानी एक तेरह-चौदह वर्ष के बच्चे सूरज के इर्द-गिर्द घूमती है। जो कि अपनी मां बिभा के साथ स्लम बस्ती @ झोपड़पट्टी में रहता है। यह मूलतः मुंबई के नहीं हैं। बिभा मूलतः बिहार की हैं। पर कुछ वजहों से वह अपने बेटे को लेकर एक शहर से दूसरे शहर भटक रही है। किसी को नहीं पता कि वह मुंबई में भी कब तक रहेगी। तो ऐसे किरदार को निभाना मेरे लिए चुनौती ही थी। कहानी अच्छी है,नैरेटिव रोचक है। मनीष ने प्रशांत नारायणन, रवि किशन,गोविंद नामदेव,अंजन श्रीवास्तव सहित बेहतरीन कलाकारों को अपनी फिल्म से जोड़ा भी है।

‘चिड़ियाखाना’ में आपका किरदार क्या है?

मैंने इस फिल्म में बिभा का किरदार निभाया है। वह बिहार से हैं और अपने छोटे बेटे के साथ घर से भागी हुई हैं। वह अपने अतीत से बचना चाहती है। वह नहीं चाहती कि उस पर या उसके बेटे सूरज पर उसके अतीत की परछाई भी पहुंचे,मगर वह जहां भी जाती है, उसका अतीत वहां तक पहुंच ही जाता है। वह सिंगल मदर है। उसके जीवन की अपनी समस्याएं हैं। इस किरदार के लिए भाषा पर काम किया। भाषाओं पर काम करने में मुझे मजा आता है। बिभा के किरदार के लिए बिहारी भाषा सीखने के लिए मैंने अभिनेत्री रतन राजपूत व एक अन्य मित्र से मदद ली।

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