बदलते परिवेश में जातीय संरचना
केवल तिवारी
सियासी जगत में नफा-नुकसान देखकर जाति शब्द का जितना इस्तेमाल किया जाता है, उतना ही सामाजिक ताने-बाने में इसका भीषण दंश भी अनेक लोगों को झेलना पड़ता है। जाति के संबंध में वर्ण व्यवस्था से लेकर वर्तमान स्वरूप तक भले ही कितनी बातें की जाती हों, लेकिन सतही तौर पर तो यही दिखता है कि इसने समाज को छिन्न-भिन्न किया है। इसी संदर्भ में समाजशास्त्र के प्रोफेसर एवं लेखक सुरिंदर सिंह जोधका की नयी किताब ‘जाति-बदलते परिप्रेक्ष्य’ कई पहलुओं को उजागर करती है। इस किताब का अनुवाद जितेंद्र कुमार ने किया है। विभिन्न समाजशास्त्रियों, लेखकों का संदर्भ देते हुए किताब में कई जाति आंदोलनों का जिक्र किया गया है।
अस्पृश्यता के खिलाफ कानूनी पहलुओं की शुरुआत, उनकी वर्तमान स्थिति और जातीय समीकरणों की विस्तृत पड़ताल पुस्तक में की गयी है। ऐतिहासिक घटनाओं का हवाला देते हुए किताब में एक जगह लेखक ने लिखा है, ‘दलित शब्द की उत्पत्ति महाराष्ट्र में राजनीतिक आंदोलन में हुई। इसका अर्थ है टूटा हुआ, जमीनी स्तर पर उत्पीड़ित। इसका इस्तेमाल पहली बार उन्नीसवीं सदी के सुधारक ज्योतिबा फुले ने जाति उत्पीड़न के संदर्भ में किया था।’
इसी तरह एक जगह लेखक ने लिखा है कि भारत के मुख्य भूभाग में जातीय आधार पर आर्थिक संरचनाओं का विकास हुआ है। लेखक ने किताब में जाति और भारतीय राजनीति के अंतर्निहित संदर्भों का भी बढ़िया विवेचन किया है। अनेक जगह लंबे वाक्य खटकते हैं, लेकिन जानकारी के मामले में बोझिल नहीं लगते। किताब चूंकि शोधपरक है, इसलिए भाषा शैली का वर्णन आलोच्य विषय से इतर ही माना जाना चाहिए। कुल आठ खंडों में विभाजित यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकती है।
पुस्तक : जाति बदलते परिप्रेक्ष्य लेखक : सुरिन्दर सिंह जोधका अनुवादक : जितेंद्र कुमार, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ : 144 मूल्य : रु. 250.