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पार्टी हरण की राजनीति का दौर

12:04 PM Aug 06, 2022 IST
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देखिए अगर किसी के घर में सेंध लग जाए, डाका पड़ जाए, लूट हो जाए, अपहरण हो जाए, संपत्ति पर कब्जा हो जाए तो यह कानून और व्यवस्था की समस्या कहलाती है। लेकिन इधर राजनीतिक पार्टियों में सरेआम सेंध लग रही है। गहनों-जेवरों की तरह से विधायक उड़ाए जा रहे हैं। जैसे इश्क में गिरफ्तार घर से निकली हुई कन्याओं को सेफ हाउस में रखा जाता है, वैसे ही उन्हें रिजोर्टों में रखा जाता है। पर समस्या कोई नहीं है-न काूनन की और न ही व्यवस्था की। एक जमाना था जब इसे रोकने के लिए दलबदल विरोधी कानून बनाया गया था। लेकिन अब उसका भी तोड़ निकाल लिया गया है। बस थोड़े सांसद और विधायक ज्यादा जुटाने पड़ते हैं, थोड़ा पैसा ज्यादा खर्च करना पड़ता है।

भाजपा विरोधी इसे ऑपरेशन कमल कहते हैं। खुद भाजपा वाले क्या कहते हैं पता नहीं। ज्ञानीजनों के अनुसार ताला और कानून दोनों तोड़ने के लिए ही होते हैं। राजनीतिक पार्टियों में अब बल्कि यह ट्रेंड ही शुरू हो गया है कि कोई पार्टी पहले किसी और की मानी जाती थी, बाद में वह किसी और की हो गयी। फिल्मों में जैसे वो जला-भुना आशिक गाया करता है न कि तू औरों की क्यों हो गयी, बाद में कुछ उसी तरह का रुदन भी मचता है। जैसे इधर शिवसेना में मचा हुआ है कि तू शिंदे की क्यों हो गयी या उधर तमिलनाडु में ओपीएस गा रहे हैं कि तू ईपीएस की क्यों हो गयी।

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इधर शिंदेजी शिवसेना को ले उड़े तो उधर तमिलनाडु में ईपीएस अन्ना द्रमुक को ले उड़े। इधर उद्धव ठाकरे और उधर ओपीएस की हालत कुछ ऐसी हो गयी है कि भूल हो गयी कासिद मेरे, तेरे हाथ पैगाम क्यों दे दिया। लेकिन इसे तोता-मैना के किस्सों वाले हरजाइपन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। जब प्यार-मोहब्बत ही नहीं तो हरजाइपन कहां से आएगा। इसे बेवफाई के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वफा थी कब, जो बेवफाई होती। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की हालत पर राज ठाकरे उसी तरह ताली बजा रहे हैं जैसे विफल आशिक अपनी पूर्व प्रेमिका के तलाक लेकर और पति को छोड़कर चले जाने पर बजाया करता है।

तमिलनाडु में कुछ इसी तरह का मामला जयललिता की महिला मित्र शशिकला का भी है। पहले राजनीतिक पार्टियों में ऐसा फुकरापन नहीं मचता था कि वह उसकी पार्टी को ले उड़ा और वह उसकी पार्टी को ले उड़ा। तब इस तरह की शालीनता थी कि भई अगर जम नहीं रहा है तो अलग हो जाओ। और अलग होकर लोग अपनी पार्टी बना लेते थे। जैसे कोई परिवार से अलग होकर अपना अलग घर बसा लेता है। लेकिन अब तो क्लेश रखना ही है। कोर्ट-कचहरी होना ही है। पर सच में यह कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। पता नहीं यह समस्या है भी कि नहीं। अगर है तो सवाल यह है कि इस समस्या को कहा क्या जाए?

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Tags :
पार्टीराजनीति
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