कबाड़ को खरा सोना बता सिक्का जमाने का दौर
अरुण नैथानी
जिन समाजों में अभिव्यक्ति के दायरे सिमटते हैं, वहां कसक की अभिव्यक्ति व्यंग्य विधा में मुखरित होती है। हम आदर्श समाज चाहते हैं, उसके लिये प्रयास करते हैं, मगर स्थितियां अनुकूल न मिले तो लेखक व्यंग्य-विधा से सामाजिक-राजनीतिक विद्रूपताओं पर प्रहार करता है। लेकिन लेखन के नाम पर शब्दों के पहाड़ खड़ा करना अर्थहीन ही है। ईमानदारी से कहें कम शब्द असरकारी होते हैं। कवि बिहारी के सतसैया के दोहों की तरह ‘देखन में छोटन लगै, घाव करें गंभीर’ की तर्ज पर। हाल में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार अनिल सोनी के व्यंग्य संग्रह ‘कबाड़ी का सिक्का’ से गुजरते हुए ये अहसास बखूबी होता है। वाकई आज के दौर में व्यंग्य के नाम पर जो अधकचरा परोसा जा रहा है उसमें चमकता सिक्का ही व्यंग्य है।
दरअसल, ये व्यंग्य महज ‘स्वान्त: सुखाय’ के लिये नहीं लिखे गये हैं। हमारे आसपास विसंगतियों से जो जख्म उभरे हैं, उन पर मरहम लगाने की कोशिश है। व्यंग्यों में हमारी असफलताओं और पराजयों की समीक्षा है और एक सुंदर-न्यायपूर्ण समाज न बन पाने की कसक शिद्दत से उभरती है। पहले महाराष्ट्र, हरियाणा और पिछले ढाई दशक से धर्मशाला में सृजन साधना ने व्यंग्यकार को गहरी व संवेदनशील दृष्टि दी है। समृद्ध शब्द भंडार ने उनकी अभिव्यक्ति को स्पष्टता-तार्किकता दी है। छोटे वाक्य धारदार और असरदार है।
समीक्ष्य कृति ‘कबाड़ी का सिक्का’ में अनिल सोनी के 73 बहुरंगी व्यंग्य हैं। जो प्रकारांतर परसाई, रवींद्रनाथ त्यागी, शरद जोशी, ज्ञान चतुर्वेदी की व्यंग्य विरासत को समृद्ध ही करते हैं। शीर्षक रचना ‘कबाड़ी का सिक्का’ देशकाल का बखूबी पोस्टमार्टम करती है। पंक्तियां देखिए- ‘वही नेता चलेगा जो फेरी लगाकर हमारे कचरे (गंदगी) से रूबरू होगा। कबाड़ी की भाषा में हमें मोहित करेगा। हम विश्वास करेंगे कि जो गंदगी उठा सकता है, हमें भी एक दिन उठा लेगा। कचरे में जो देश ढूंढ़ सकता है, वह वास्तव में सिक्का है। यही सिक्के चल रहे हैं।’ इसी तरह ‘पेंशन लो, बुढ़ापा लो’ में वे तंज करते हैं- ‘पता नहीं कर्मचारी ये क्यों नहीं समझ रहे कि जिंदगी में बुढ़ापा न आए और वे भी किसान-मजदूर की तरह बिना पेंशन के हृष्ट-पुष्ट रह सकें।’ देश के अमीर लोन डिफॉल्टर पर गहरा व्यंग्य है- ‘भीख पर जीएसटी।’ जिसमें वे लिखते हैं- ‘देश के सारे भीख के कटोर हड़ताल पर चले गए। उनकी मांग थी कि जब अमीर से अमीर बैंक से उधारी खाकर दीवालिया घोषित होना चाहते हैं तो उन्हें भी यह हक मिले।’ तोप सिंह पत्रकार में वे लिखते हैं- ‘तब वह जनता की गिनती में था, अब वो सत्तारूढ़ दलों में गिना जाने लगा है।’ मुफ्त की मानसिकता पर तंज करती रचना- ‘क्या धनिया फ्री मिलेगा’ में वे लिखते हैं– ‘सौ रुपये से ऊपर पेट्रोल के दाम चुकाने वाले किसान के पसीने से उगे धनिया को फ्री मांगते हैं।’
निस्संदेह, व्यापक फलक में भावनात्मक अभिव्यक्ति वाले सोनी के व्यंग्य विसंगतियों-विद्रूपताओं को उघाड़ते हुए व्यवस्था में बदलाव के आकांक्षी हैं।
पुस्तक : कबाड़ी का सिक्का व्यंग्यकार : अनिल सोनी प्रकाशक : इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 168 मूल्य : रु. 495.