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बच्चों में आंखों के केराटोकोनस रोग में एपी-ऑफ कोलेजन क्रॉसलिंकिंग तकनीक सुरक्षित और प्रभावी: डॉ अशोक शर्मा

04:57 PM Aug 17, 2024 IST
बच्चों में आंखों के केराटोकोनस रोग में एपी ऑफ कोलेजन क्रॉसलिंकिंग तकनीक सुरक्षित और प्रभावी  डॉ अशोक शर्मा

चंडीगढ़, 17 अगस्त (ट्रिन्यू)
कॉर्निया आंख का एक उत्तल यानी कि बाहर की ओर मुड़ती हुई सतह, पारदर्शी, अग्र भाग है, जो प्रकाश को रेटिना पर केंद्रित करता है। केराटोकोनस में कॉर्निया पतला, अंडकोशीय और अनियमित हो जाता है। कॉर्निया प्रकाश को रेटिना पर केंद्रित करने की शक्ति खो देता है और इस मामले में धुंधलापन और दृष्टि में कमी आती है। पश्चिमी देशों की तुलना में भारत सहित एशियाई देशों में केराटोकोनस अधिक आम है। बच्चों में यह बीमारी अधिक गंभीर रूप में प्रकट होती है और तेजी से बढ़ती है। इस बीमारी के कारण कई बच्चों को कम उम्र में कॉर्निया प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है।

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राइबोफ्लेविन (सी3आर) के साथ कोलेजन क्रॉसलिंकिंग केराटोकोनस की प्रगति को रोकती है और बच्चों में कॉर्नियल ग्राफ्ट से बचा सकती है। राइबोफ्लेविन के साथ कोलेजन क्रॉसलिंकिंग को 2002 में वोलेनसेक द्वारा विकसित किया गया था। इस प्रक्रिया में कॉर्नियल उपकला को हटा दिया जाता है; राइबोफ्लेविन की बूंदें 30 मिनट के लिए डाली जाती हैं और 30 मिनट के लिए यूवी-लाइट (3एमवी/2सीएम) एक्सपोजर दिया जाता है। इस सर्जरी में एक घंटे का समय लगता है। एक नई प्रक्रिया त्वरित सी3आर विकसित की गई है जिसमें प्रक्रिया 30 मिनट में पूरी हो जाती है। उक्त नई तकनीक की प्रस्तुति चंडीगढ़ के डा. अशोक शर्मा कार्निया सेंटर के विशेषज्ञ डॉ. अशोक शर्मा ने मलेशिया में 5वें विश्व बाल चिकित्सा नेत्र विज्ञान सोसायटी सम्मेलन में त्वरित सी3आर पर अपना शोध प्रस्तुत किया।

डा. अशोक शर्मा ने बताया कि केराटोकोनस यह बच्चों में ज्यादा देखने को मिल रहा है। इसे सरल शब्दों में, कॉर्निया की सतह की अनियमितता और कॉर्निया के पतले होने को केराटोकोनस कहा जाता है। कॉर्निया आंख की एक पारदर्शी और स्पष्ट बाहरी परत होती है। इसके अतिरिक्त, बीच की परत, जो कॉर्निया का सबसे मोटा हिस्सा है, कोलेजन और पानी से बनी होती है। यदि किसी व्यक्ति को केराटोकोनस का निदान किया जाता है, तो कॉर्निया पतला होना शुरू हो जाता है और अंतत: एक शंकु के आकार में उभार लेता है, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर दृष्टि की हानि होती है। उन्होंने विशेष बातचीत में बताया कि बच्चों में उक्त रोग कुछ में जेनेटिक होता है तो कुछ में आंखों में एलर्जी के कारण, डोन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चों, कुछ बच्चों की ओर से आंखों को बार बार रगड़े के कारण व कुछ में इसके कारणों का पता नहीं चलता है।

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उन्होंने बताया कि पहले इस रोग का पता बच्चों में 8 से 10 साल की उम्र में पता चलता था लेकिन अब नई तकनीक के सामने आने से पहले लगाया जा सकता है। डॉ. अशोक शर्मा ने पारंपरिक एपि-ऑफ (60 मिनट) प्रक्रिया के परिणामों की तुलना नई विकसित की प्रक्रिया त्वरित सीएक्सएल (30 मिनट) से की है।
उन्होंने बताया कि त्वरित सीएक्सएल प्रक्रिया 30 मिनट में पूरी की जा सकती है जबकि पारंपरिक सीएक्सएल प्रक्रिया में 60 मिनट लगते हैं। कम समय में ऑपरेशन करने की वजह से छोटे बच्चे इस त्वरित सीएक्सएल सर्जरी में बेहतर सहयोग कर सकते हैं। डॉ. अशोक शर्मा ने पाया है कि दोनों के परिणाम समान हैं। हालांकि, वे इन परिणामों को मान्य करने के लिए लंबे समय तक फॉलो-अप करने का सुझाव देते हैं।

उन्होंने बताया कि छोटे बच्चों में एक नई प्रक्रिया त्वरित सी3आर विकसित तकनीक को करना एक चुनौती होती है क्योंकि उन्हें एनाथिसिया देकर पहले बेहोश किया जाता है फिर किया जाता है। कुछ में बिना बेहोश किये किया जाता है। उन्होंने कहा कि नई विकसित की प्रक्रिया त्वरित सीएक्सएल से सर्जरी को करने में आधे घंटे का समय लगता है। उन्होंने बताया कि इस तकनीक से 85 से 90 प्रतिशत रिजल्ट मिलते हैं।

डॉ. अशोक शर्मा के नये शोध कार्य में डॉ. राजन शर्मा ने भी मदद की जिसके लिए उनका धन्यवाद दिया। इस शोध की सराहना की गई और अधिकांश शोधकर्ता इस बात पर सहमत हैं कि यह प्रक्रिया समान रूप से प्रभावी है। डॉ. अशोक शर्मा कहते हैं कि हम लेंस टर्म के परिणाम के लिए इन बच्चों का अनुसरण कर रहे हैं।

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