बर्फीले रेगिस्तान में रचनात्मक कुदरती ऊर्जा के प्रकाश पुंज
रक्त जमाती लद्दाख की ठंड के बीच लोगों के जीवन में नई ऊर्जा का संचार करने वाले सोनम वांगचुक सुर्खियों के सरताज रहे हैं। इंजीनियरिंग करने के बावजूद उन्होंने अपना जीवन लद्दाख में लोगों के सुखमय रहने में लगाया। शिक्षा में नए प्रयोग करके उसे व्यावहारिक जीवन से जोड़ा। हिमालयी जीवन को अक्षुण्ण बनाने के लिये आंदोलनरत रहे। बीते साल वे लंबे अनशन पर रहे। वो बात अलग है कि नई पीढ़ी उन्हें उनके जीवन पर बनी बहुचर्चित फिल्म थ्री इडियट के रेंचो के रूप में याद करती है।
अरुण नैथानी
लेह की रक्त जमाती सर्दी में लोकतांत्रिक संस्थाओं व पर्यावरणीय सरोकारों को ऊर्जा देने वाले सोनम वांगचुक किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे लगातार बीमार होते प्लेनेट की स्वास्थ्य बहाली के लिये डॉक्टर की भूमिका में हैं। मूल रूप से इंजीनियर सोनम तकनीक के विरोधी नहीं हैं। लेकिन वे चाहते हैं कि पहाड़ों की प्रकृति के अनुरूप तकनीक का उपयोग हो, हम पहाड़ों में प्रदूषण कम करें। वे मानते हैं कि प्रकृति के अनुकूल व्यवहार से इस ग्रह की बड़ी सेवा हो सकती है।
समाज की सेवा की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण कदम होगा। उनका मानना है कि प्रकृति सबसे बड़ी शिक्षक है, जिससे हमें हर पल सीखना चाहिए। जिसके लिये हमें पहाड़ों का परिदृश्य महसूस करना चाहिए। हमें कृत्रिम इंटेलिजेंस के बजाय नेचुरल इंटेलिजेंस की ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए।
हील द प्लेनेट, हील द पीपुल
सोनम मानते हैं कि पहाड़ों की जटिल परिस्थितियों में हमें अपने पुरखों के अनुभव विशेषज्ञता का लाभ उठाना चाहिए। वे ‘हील द प्लेनेट, हील द पीपुल’ विचारधारा के पक्षधर हैं। दरअसल, उनका मानना है यदि हमारी धरती स्वस्थ रहेगी तो लोग स्वस्थ रहेंगे। इसके लिये तकनीक का यूज आम लोगों के लिए उपयोगी व क्षमता के अनुरूप होना चाहिए।
लद्दाख का संदेश
जब आप लद्दाख में होंगे तो पिक्चर स्टोरी सब कुछ बयां कर देगी। आप महसूस करेंगे कि वास्तव में क्या हो रहा है पर्यावरणीय दृष्टि से और इकॉलॉजी के नजरिये से भी। सवाल यह है कि कैसे हम मिलकर प्लेनेट को हील कर सकते हैं। खासकर हाई हिमालय रीजन में। यह इलाका न केवल शेष देश से बल्कि पूरे ग्रह से भी अलग है।
हर तरह से अलग है, संदर्भ में और परिवेश में भी। लद्दाख टॉप नार्थ में स्थित है। ये ट्रांस हिमालयन क्षेत्र है। ये अलग है हिमालय के हृदय में, शेष कश्मीर, शिमला, दार्जिलिंग, मसूरी आदि से। संपूर्ण ट्रांस हिमालय में अलग तरह की प्रकृति है। यह चिंता की बात है कि अतिरेक मानवीय गतिविधियों से धरती की स्थिति बेहद खराब हुई है। हिमालयी इलाकों में भी गर्मी के दौरान तापमान 35 डिग्री तक पहुंचता है और जाड़ों में शीत लहर चलती है। यानी गर्मी में झुलसाती लू तो ठंड में रक्त जमाती सर्दी।
हमारे पर्यावरण का बैरियर है हिमालय
हिमालय बैरियर है मानसून के बादलों का। लद्दाख आकाश में रेगिस्तान जैसा है। महज चार इंच बारिश होती है। ये इलाका हाई एंड ड्राइ है। इसके बावजूद लोग संसाधनों से संपन्न हैं। सदियों के अनुभव से ग्रीन पेचेज बनाए गए हैं, ग्रीन आइलैंड जैसे। जिसे हमारे पूर्वजों ने बनाया। शेष भारत व दुनिया में मानव ने प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। लेकिन हमारे बर्फीले रेगिस्तान में वन नहीं हैं, पानी नहीं है। हजारों साल तक पर जल स्रोत तलाशे हैं।
लद्दाख के पहाड़ों पर पानी तलाशा गया है फोसलाइज वाटर के रूप में। ग्लेशियर यहां के लोगों की जीवन रेखा है। हजारों साल पहले पूर्वजों ने पिघलते ग्लेशियरों से पानी के रिसाव को तलाशा था। लोगों ने इस पानी का जीवन यापन के लिये इस्तेमाल किया। आज यहां ग्लेशियर के रिसाव से मिले पानी से सेब,आड़ू, पलम, अंगूर आदि फल पैदा किए जा रहे हैं। इसी तरह मटर, गोभी, आलू आदि सब्जियां। जो यहां के लोगों के जीवन यापन का साधन बना है।
स्कूलों में व्यावहारिक जीवन का ज्ञान
सोनम वांगचुक के मुताबिक, हमें गर्व है कि हमारे पूर्वजों ने प्रकृति की कठिनता के बावजूद जीवन की संभावनाओं को पैदा किया है। इस इलाके में जीवन ही नहीं, एक समृद्ध संस्कृति विकसित की है। मैं बचपन में इसी प्रकृति व पूर्वजों के अनुभवों से सीख कर बड़ा हुआ। मैं एक असामान्य छात्र था। मैंने नौ वर्ष में अपने गांव में स्कूली शिक्षा शुरू की।
मैंने लोगों, किसानों,जानवरों पेड़-पौधों व इंडस नदी से सीखा। बचपन की जिज्ञासाएं शांत की। मैं किस्मत वाला था। विडंबना है कि परंपरागत स्कूलों में बच्चों को स्कूल में याद करना, रटना, चैटिंग तो सिखायी जाती है। लेकिन जीवन का व्यावहारिक ज्ञान स्कूल एजुकेशन का पार्ट नहीं होता। मेरा मानना है कि स्कूली शिक्षा जीवन की हकीकत से जुड़ी होनी चाहिए।
ग्लोबल वार्मिंग की तपिश
विडंबना है हमारा सुंदर परिवेश बदल रहा है। परिस्थितियां अधिक कठोर बन रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग से लाइफ लाइन संकुचित हो रही है। न केवल सूखा बढ़ रहा बल्कि मीठा पानी कम हो रहा है। धीरे-धीरे ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मानसून क्लाउड हाई राइज कर रहे हैं। हिमालय पर्वत श्रृंखला से ऊपर जा रहे हैं। इनके ऊंचाइयों पर जाने से क्लाउड ब्रस्ट की स्थितियां बन रही हैं। जहां पानी नहीं वहां फ्लड की स्थिति बन रही। फ्लैश फ्लड नया संकट है।
दुनिया में साउथ व नॉर्थ के बाद हिमालय को थर्ड पोल कहा जाता है। करीब 50 हजार ग्लेशियर हैं यहां। मीठे पानी का सबसे बड़ा खजाना रहा है। धीरे-धीरे पानी कम हो रहा। ग्लेशियर गायब हो रहे हैं। इन ग्लेशियरों से मिलने वाले पानी पर हिमालयी परिधि में बसे देशों की दो बिलियन आबादी डायरेक्ट-इंडायरेक्ट रूप से निर्भर है। लेकिन ये धीरे-धीरे सिकुड़ रहे हैं।
श्वेत ग्लेशियर पर कालिख
वैश्विक तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जिससे हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी झीलें बनती हैं। ज्यादा पानी होने पर फटती हैं। जिससे अचानक बाढ़ आती है। पिछले वर्ष हमने सिक्किम में इस तरह की त्रासदी को देखा है। तमाम संरचनात्मक क्षति हुई और बड़ी संख्या में लोगों की जान गई। जिसके लिये कुछ लोग ही दोषी नहीं हैं। ये ग्लोबली हो रहा।
देश के विभिन्न शहरों, मसलन जम्मू, दिल्ली, पटना, लखनऊ में वाहनों व जीवन यापन के साधनों का जो ब्लैक कार्बन उत्पन्न हो रहा है, वह हवा के साथ पहुंचकर ग्लेशियरों को काला कर रहा है। काला रंग सूरज को आकर्षित करता है। वे ज्यादा तेजी से गलते हैं। जिसके बाद फ्लैश फ्लड की स्थितियां बनती हैं। आधे घंटे में तेज पानी के साथ बाढ़ आ जाती है।
लद्दाख में बाढ़ का सिलसिला
मुझे याद है लद्दाख में 2006 की बाढ़ में कई गांव बह गए थे। वॉलंटियर बनकर गया था तो महसूस किया कि कितनी बड़ी समस्या है। एक अस्सी साल के बुजुर्ग से पूछा कि लद्दाख में पहले बाढ़ कब देखी है? उसने कहा- देखी नहीं मगर सुना था। पहले बाढ़ 2006 में आई। फिर 2010 की बाढ़ की तबाही में शहर से एक हजार लोग सरकारी सूचना के अनुसार लापता थे, गैर सरकारी तौर पर संख्या ज्यादा हो सकती है। फिर वर्ष 2013 व 2017 में छोटी अन्य बाढ़ आई। हमारा ग्रह स्वस्थ नहीं। हमें प्लेनेट को सुधारना है।
मिशन की शुरुआत
मैंने मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्री ली और वापस लद्दाख लौट आया। मेरे सहपाठी नौकरी की तलाश में सिलिकन वैली व बैंगलूरू जा रहे थे। मैंने इस इलाके की शिक्षा में बदलाव को लक्ष्य चुना। शिक्षा का मतबल कैरियर व जीवन की समृद्धि का साधन मान लिया गया। लेकिन वास्तव में इको हॉरमनी वक्त की जरूरत है। हमने व्यावहारिक जीवन की शिक्षा देने वाला स्कूल खोला। क्लाइमेट चेंज के प्रभाव के अध्ययन को भी लक्ष्य बनाया गया।
बच्चों को अपने परिवेश को बचाने के लिये सिखाने का प्रयास किया गया। पहाड़ों में जीवन बचाने की जिम्मेदारी का अहसास कराया। एक स्कूल विकसित किया जो कार्बन न्यूटरल साबित हो। प्राकृतिक संसाधनों मिट्टी,पानी,हवा व सूरज की रोशनी का इस्तेमाल किया। और फिर जादू हो गया। दुनिया के ठंडे से ठंडे इलाके में मड व सूर्य की ऊर्जा से उष्मारोधी स्कूल बना। सोलर डिवाइस का उपयोग किया। सूरज की ऊर्जा भवन को गर्म करती है।
कंप्यूटर व अन्य उपकरण सोलर ऊर्जा से चलते हैं। सुधार किया कि शिक्षा को कैसे व्यावहारिक बनाया जाए। यहां बच्चे किताबों से ज्यादा प्रकृति से सीखते हैं। यहां किताबें जीवन की हकीकत पढ़ाती हैं। कुकिंग, पानी की आपूर्ति व तापमान नियंत्रण सौर ऊर्जा से किया गया। यहां तक कि गाय के लिये सोलर हिटेड गोशाला बनायी गई।
बर्फ में जीवनानुकूल घर
भौतिकी के सिद्धांतों से रेडिएशन को नियंत्रित किया गया। ब्लैक दीवारों को तापमान अनुकूल बनाया गया। रात को जब ठंड बढ़ जाती है तो दीवारें गर्म रहती हैं। माइनस 15 तापमान में भी नो फायर, नो स्मोक और नो पावर बिल। जाड़ों में ठंडी रहती हैं। इस तकनीक का उपयोग अन्य लोगों के लिए भी किया।
इसी तर्ज पर सेना के जवानों के लिये वातानुकूल घर बनाये। यहां जवान गर्म इलाकों से आते हैं। सीमा पर रहने वाले जवानों के लिये स्मोक फ्री, फायर फ्री शेल्टर बनाये गए। इससे जहां जवानों की दुर्घटनाएं टली, वहीं मिलियन टन कार्बन उत्सर्जन रुका। सेना के जवानों को ठंड अनुकूल ढालने को भारी मात्रा में ईंधन खर्च किया जाता रहा। भारत की तरफ ही नहीं, चीन व पाक की ओर भी। इन बचे ऊर्जा संसाधनों का उपयोग अन्य कार्यों में किया गया। इस तरह सोलर-हिटेड शेल्टर बहुत उपयोगी साबित हुए।
जीवन उपयोगी शिक्षा में समाधान
दरअसल, वक्त के साथ एजुकेशन के मायने बदल गए। हम लोगों ने सोच लिया कि शिक्षा का मकसद सिर्फ आर्थिक समृद्धि के लिये जीविका का उपार्जन करना है। वास्तव में इकॉलाजिकल हारमोनी भी उतनी ही जरूरी है। यंग पीपुल को ये सिखाकर पर्यावरण संकट के समाधान निकाले जा सकते हैं। हमारी कोशिशों के अच्छे परिणाम भी आए हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पूरा ट्रांस हिमालयन क्षेत्र संकटग्रस्त है। दरअसल, शिक्षा के जरिये जीवन की व्यावहारिक समस्याओं के समाधान तलाशना चाहिए। सोलर हिटेड मकान का आविष्कार इसका उदाहरण है।
दरअसल, गणित व विज्ञान छात्रों की जिज्ञासा शांत नहीं करते। प्रकृति में क्लास रूम के किताबी ज्ञान से बाहर जीवन का व्यावहारिक गणित सिखाया जाना चाहिए था। यंग पीपुल दुनिया की समस्याओं के नये समाधानों को लेकर उत्साही हैं। अल्टर्नेटर स्कूल आर्थिक स्वावलंबन का मार्ग दिखाते हैं, हिमालय इंस्टीट्यूट अल्टर्नेटिव स्टडी नये समाधान प्रस्तुत करता है। हायर एजुकेशन का स्वरूप डेमोक्रेटिक होना चाहिए। छात्रों को नये प्रोजेक्ट के जरिये 30 प्रतिशत किताबी और 70 फीसदी फील्ड का ज्ञान देना चाहिए। ऐसी शिक्षा से धन और हेल्थ दोनों मिलेंगे। आने वाली पीढ़ियों के लिये साफ पर्यावरण मिलेगा। शिक्षा को नये सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है।
कृत्रिम ग्लेशियर से जीवन बांटने का ऋषिकर्म
बर्फीले रेगिस्तान लद्दाख जहां मानसून की दस्तक नहीं होती, वहां गर्मियों में खेती-किसानी के लिये बड़ा जल संकट होता है। इस संकट के एक समाधान के लिये सोनम वांगचुक को याद किया जाता है। दरअसल, उनके मन में विचार आया कि यदि हम बर्फ को किसी तरह गर्मियों के लिये बचा सकें तो ये किसानों के लिये वरदान साबित हो सकता है। दरअसल, लद्दाख में ग्लेशियर पिघलने से रिसने वाला पानी ही लाइफ लाइन होती है। ये प्राकृतिक जल सिर्फ गर्मी में ही बहता है। उपयोग के अभाव में अधिकांश पानी नीचे सिंधु नदी में बहकर अरब सागर में चला जाता है। लेकिन गर्मियों के सीजन में यह पानी नहीं मिलता।
उनके मन में विचार आया कि यदि वसंत ऋतु में बहने वाले पानी को मई-जून के लिये रख सकें तो किसानों का जल संकट दूर हो सकता है। एक बार यात्रा के दौरान वांगचुक ने देखा कि पुल के नीचे गर्मी के बावजूद बर्फ जमी है। उन्होंने उसका अध्ययन किया और पाया कि सूरज की किरणें न पड़ने से बर्फ बची रही है। लद्दाख के वातावरण की हवा में पानी जमाने वाली ठंडक तो है लेकिन सूरज की सीधी रोशनी बर्फ को पिघला देती है।यहीं से उनके मन में कृत्रिम ग्लेशियर का विचार पैदा हुआ।
उन्होंने विचार किया कि पानी की प्रकृति है कि वह जिस ऊंचाई से बहता है, उसी ऊंचाई तक दबाव से उसे पहुंचाया जा सकता है। इसी सिद्धांत के अनुरूप ग्लेशियरों से रिसकर बहने वाले पानी को पाइप के जरिये एक फाउटेंन से ऊपर की ओर भेजा गया। बर्फ इसलिए पिघलती है कि उसका आधार बड़ा होता है और सूरज की रोशनी विस्तृत होकर उसे पिघला देती है। यदि उसे पिरामिड की शक्ल दी जाए तो ऊपर से पड़ने वाली सूरज की किरणों का क्षेत्रफल कम होने बर्फ देर से पिघलेगी।
लद्दाख की ठंडी हवाएं उसे पिघलने से रोकती हैं। यह फार्मूला ही कृत्रिम ग्लेशियर बनाने के काम आया। इस तरह से आइस कॉन देर तक पानी बचाने में मददगार बने। वांगचुक का फार्मूला काम आया और किसानों ने दस मंजिल इमारतों की ऊंचाई के बराबर बर्फ के पिरामिड बनाए । ये पिरामिड बौद्धों के धर्मस्थल स्तूप जैसे थे, तो बौद्ध अनुयायियों ने इससे अपनी आस्था को जोड़ा और बड़ी संख्या में खेतों में आइस कॉन बनाये। यहां तक कि लद्दाख के गांवों में बर्फ के स्तूप बनाने की प्रतियोगिताएं भी होने लगी।
दरअसल, ये बर्फ के पिरामिड मिस्र के पिरामिड जैसे थे। लेकिन इन्हें बनाना जटिल कार्य था। पिरामिड में ब्लॉक सॉलिड अवस्था में ऊपर ले जाते थे, यहां लिक्विड को ऊपर ले जाने की चुनौती थी। पानी को पाइप के जरिये पहाड़ों से नीचे लाया गया, फिर दबाव से ऊपर ले जाया गया। वह भी बिना किसी पावर के। इस तरह आइस कॉन के जरिये एक मिलियन लीटर पानी को सहेजा जा सका। पानी के दबाव, हाइड्रोलिक ताकत व ठंडी हवा से ये संभव हो सका। इसमें ज्योमिट्री के सिद्धांतों का उपयोग किया गया। जिससे रोज किसानों को चालीस हजार लीटर पानी दिया जाने लगा। वह भी बिना किसी बाहरी लागत व बिजली व अन्य ऊर्जा के उपयोग के। फिर उस इलाके में हरीतिमा रची गई, जहां कभी कोई पेड़ नहीं होता था।
कालांतर, कुदरत की प्रयोगशाला में रचे गए इन बर्फ के स्तूपों को स्थानीय लोगों ने अपनी संस्कृति से जोड़ लिया। स्तूपों की पूजा करने वाले लोगों ने इन जीवनदायी आइस कॉन को पूजना शुरू किया। कालांतर ये एक सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में पहचान बनाने लगे। लोगों ने इनके चारों तरफ बौद्ध अनुयायियों की तरह आस्था के अनुरूप रंग-बिरंगी कतरने लगानी शुरू कर दी।
इस कार्य में वांगचुक के प्रयासों से बनी हिमालयन इनिसेटिव अल्टर्नेट यूनिवर्सिटी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। जिसके प्रयासों से बर्फीले रेगिस्तान में बदलावकारी तकनीकों का उपयोग बढ़ा। महत्वपूर्ण यह है कि कृत्रिम ग्लेशियर बनाने के इस काम में किसी बैटरी या जीवाश्म ईंधन का उपयोग नहीं किया जा रहा है। उनके प्रयासों से बनायी गई कोल्ड वेव रोबोटिक मशीन सेंसर के जरिये तब काम करने लगती है जब सर्दियों में पानी पाइप लाइन में जमने लगता है। ये सिस्टम माइनस तापमान होने पर भी काम करता है। इनके लिये छोटे सोलर पैनल के जरिये ऊर्जा जुटाई जाती है।
यहां कुतुब मिनार जैसी ऊंचाई के बर्फ के स्तूप बनने लगे। विदेशों में इस तकनीक को अपनाया जा रहा है। आज मंगोलिया, नेपाल, पाक, स्विटजरलैंड, चिली में आइस स्तूप बनाये जा रहे हैं। कुछ साउथ अमेरिकी देश भी इसका अनुकरण कर रहे हैं। निस्संदेह, वांगचुक के प्रगति और प्रकृति में सामंजस्य के प्रयास नई पीढ़ी के लिये प्रेरणादायी हैं। अ.नै.