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प्रत्येक युवा हेतु प्रशिक्षुता अधिकार सुनिश्चित हो

07:43 AM May 17, 2024 IST

संतोष मेहरोत्रा
कांग्रेस ने 2024 के आम चुनाव के जारी अपने घोषणा पत्र में उच्चतर सर्टिफिकेट, डिग्री, डिप्लोमाधारी तमाम युवाओं को प्रशिक्षुता का अधिकार देने का वादा किया है। यह संकल्प 25 वर्ष से नीचे के सभी युवाओं को उन जगहों पर प्रशिक्षण और रोजगार की गारंटी सुनिश्चित करता है जहां पर वे प्रशिक्षु रहते हुए कौशल सीखेंगे। यह प्रारूप जर्मनी के कौशल मॉडल सिद्धांत पर आधारित है (जहां स्कूली शिक्षा पाने के दौरान छात्रों को किसी न किसी काम का कार्यानुभव करवाया जाता है)। भारत में व्यवसायिक कौशल परिदृश्य सदा से आपूर्ति-संचालित रहा है, जिसमें विद्यार्थी को शिक्षा तो मिलती है लेकिन असल मायने में कोई व्यावसायिक कौशल नहीं सिखाया जाता। इस व्यवस्था में, रोजगार प्रदाताओं का उनसे न तो कोई सीधा संपर्क होता है न ही उन्हें प्रशिक्षु-कामगार रखने की जरूरत महसूस होती है। यह स्थिति भारत में सरकार के कौशल विकास कार्यक्रम की कारगुजारी की समीक्षा करने की जरूरत दर्शाती है और यह भी कि क्योंकर प्रशिक्षुता का अधिकार सुधार लाने की दिशा में एक सही कदम होगा।
भारत में 2000 के दशक तक, लगभग आधी सदी तक व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण का क्षेत्र उपेक्षित रहा है (यह भारत की योजना नीतियों में समुचित स्कूली शिक्षा पर ध्यान न देने जैसा है) जिसकी कीमत आज हम चुका रहे हैं। वर्ष 1991 में, जब भारत में आर्थिक सुधार होने शुरू हुए, साक्षरता दर 51 प्रतिशत थी, अर्थात‍् भारत की कुल आबादी का आधा हिस्सा अनपढ़ था और यह तबका अधिकांशतः कृषि क्षेत्र में केंद्रित था। हालांकि 1990 के दशक में स्कूली शिक्षा पर अधिक खर्च करने के रूप में नए सिरे से जोर देना शुरू हुआ परंतु शिक्षा के साथ व्यावसायिक कौशल प्रशिक्षण देना फिर भी उपेक्षित बना रहा (हालांकि उच्च तकनीकी शिक्षा में ऐसा नहीं था)। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) पहली ऐसी थी जिसमें कौशल विकास के विषय पर एक अलग से अध्याय था।
परिणामस्वरूप, भारत का उत्पादन क्षेत्र एवं सेवा श्रम बल की संरचना आज भी निम्न शिक्षा वालों से बनी है। बदतर स्थिति यह कि राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे विभाग का रोजगार-बेरोजगारी अध्ययन 2011-12 बताता है कि श्रम बल का महज 2.2 प्रतिशत हिस्सा औपचारिक प्रशिक्षु श्रेणी से है। आवधिक श्रम बल सर्वे के आंकड़े दर्शाते हैं कि औपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त श्रमिकों की संख्या वर्ष 2011-12 में 2.2 फीसदी थी (1 करोड़ 43 लाख) जो 2017-18 में घटकर 2 प्रतिशत (91 लाख 40 हजार) रह गई। लेकिन अगले पांच साल यानी 2022-23 में यह 3.7 फीसदी (2 करोड़ 5 लाख) हो गई। इसलिए, जिन्हें हम व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित कह सकते हैं, वे कहां से आन जुड़े?
आवधिक श्रमबल सर्वे-2017-18 बताता है कि कुल व्यावसायिक प्रशिक्षुओं में 22 फीसदी वह थे जिन्होंने 6 माह से कम अवधि का कोर्स किया हो, अब यह अंश बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया है। अधिक चिंताजनक यह कि 2017 में 29 फीसदी प्रशिक्षु ऐसे थे जिन्होंने दो साल या अधिक अवधि के कोर्स किए थे, जो अब घटकर 14.29 फीसदी रह गए हैं। भारत कौशल मिशन नामक कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षुता अवधि बहुत कम है (कुछ मामलों में तो महज 10 दिन)।
वर्ष 1961 से भारत का अपना प्रशिक्षुता अधिनियम है, जिसके तहत तमाम पंजीकृत कंपनियों और उद्यमों के लिए जरूरी है कि वे अपने यहां एक साल या उससे अधिक अवधि के लिए प्रशिक्षु रखें ताकि वे नौकरी पर रहते हुए व्यावयायिक दक्षता हासिल कर पाएं। दस साल पहले गैर-कृषि उद्यम वर्ग में लगभग 2,50,000 पंजीकृत प्रशिक्षुक थे। अगस्त, 2016 में, भारत सरकार ने राष्ट्रीय प्रशिक्षुता प्रोत्साहन योजना शुरू की, जिसके लिए 10,000 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया। हालांकि इसका उद्देश्य था कि वर्ष 2020 तक 50 लाख युवा प्रशिक्षु बनकर कौशलयुक्त हो सकेंगे लेकिन 2022 तक 20 लाख ही बन पाए। 2017 से 2022 के बीच, इस योजना के लिए रखे गए 10,000 करोड़ रुपये में केवल 650 करोड़ रुपये ही राज्यों को मिले। 2023 में राष्ट्रीय प्रशिक्षुता योजना-2 शुरू की गई, लेकिन इसके आंकड़े फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं।
2022 में आए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि 1961 वाले अधिनियम में किए गए संशोधन भारत में प्रशिक्षुओं की संख्या में बढ़ोतरी करने में सहायक रहे। 2022-23 में कुल 57 करोड़ श्रम बल में औपचारिक प्रशिक्षुता वर्ग में आने वालों की गिनती केवल 5 लाख के आसपास थी, हालांकि दस साल पहले यह संख्या 2.5 लाख थी। स्पष्ट है कि संशोधनों का परिणाम चमत्कारी नहीं रहा। इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि लगभग संपूर्ण निजी कॉर्पोरेट सेक्टर अपने यहां प्रशिक्षुता योजना लागू करने के प्रति ज्यादातर उदासीन रहा है। केवल केंद्रीय और राज्यों के सरकारी उद्यम इस अनिवार्यता को पूरा करने में यत्न करते दिखाई देते हैं। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम तो अभी भी इस योजना से आंखें फेरना जारी रखे हुए हैं। नतीजतन, जहां जर्मनी के कुल 4 करोड़ 60 लाख श्रमबल में से कम से कम 60 लाख प्रशिक्षु श्रेणी से हैं, वहीं भारत में इनकी गिनती केवल 5 लाख है। यह अंतर उद्यम/नियोक्ता की रोजगार पूर्व प्रशिक्षण में भागीदारी के स्तर की वजह से है, जो भारत को आपूर्ति-संचालित बनाता है, जबकि दुनियाभर में व्यावसायिक प्रशिक्षुता प्रशिक्षण कार्यक्रम मांग-संचालित हैं।
भारत में प्रति वर्ष श्रम बल में 60 लाख नये रोजगार अभिलाषियों के जुड़ने और पहले से 10 करोड़ से अधिक खाली बैठे युवाओं के चलते (जो न तो शिक्षा क्षेत्र में हैं न ही किसी नौकरी या प्रशिक्षण में) जिस चीज़ की फौरी जरूरत है, वह है उनकी शिक्षा के हिसाब से काम मिलना, फिर चाहे यह शिक्षा सामान्य प्रवृत्ति वाली हो या व्यावसायिक या फिर तकनीकी। इसके लिए जरूरत है केंद्रीय सरकार के गंभीर चिंतन और नियोक्ताओं/उद्योग जगत को साथ जोड़कर कौशल विकास प्रक्रिया फौरी शुरू करवाने की। यह फौरी जरूरत निम्न तथ्यों से बनती है ः भारत कौशल रिपोर्ट 2021 की दलील है कि भारत में स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त युवाओं में लगभग आधे खाली बैठे हैं। वर्ष 2012 में मुक्त बेरोजगारी लगभग 2.1 फीसदी थी जो 2018 में तीन गुणा बढ़कर 6.1 प्रतिशत हो गई, यह दर पिछले 45 सालों के सर्वे में उच्चतम है।
शिक्षित बेरोजगार, कौशल कार्यक्रम के प्रति अनिच्छुकता, घटिया दर्जे का प्रशिक्षण और पढ़ाई उपरांत नौकरी मिलने की नगण्य दर के आलोक में कौशल परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन करना एक त्वरित आवश्यकता बन गई है। केवल बड़ी-बड़ी बातें करने और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए सरकारी आंकड़ों से काम नहीं बनने वाला। सरकार के लिए गिनती की बजाय गुणवत्ता को तरजीह देना लाजिमी हो ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इन कार्यक्रमों से निकलकर आया हर कोई श्रम बल में अर्थपूर्ण योगदान कर पाए। कौशल विकास नीतियां और कार्यक्रम विफल सिद्ध हुए हैं, उनमें स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी के मॉडल की तर्ज पर आमूलचूल सुधार करने की आवश्यकता है, जिसमें युवा और उद्योग को ध्यान के केंद्र में रखा जाता है। प्रत्येक युवा के लिए प्रशिक्षुता का अधिकार सुनिश्चित करना एक फौरी तरजीह हो।
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लेखक आईज़ेडए इंस्टिट्यूट ऑफ लेबर इकॉनोमिक्स, जर्मनी में रिसर्च फैलो हैं।

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