किसान की जीवन निर्वाह आय यकीनी बनाएं
किसानों के लिए जीवन निर्वाह आय की विभिन्न परिभाषाएं दी जाती रही हैं। इसको लेकर एक परिभाषा 1.8 मिलियन से अधिक किसानों के सहकार वाले वैश्विक आंदोलन फेयरट्रेड इंटरनेशनल ने भी दी है जिसके मुताबिक, घर के सभी सदस्यों के लिए एक सभ्य जीवन स्तर वहन करने के लिए पर्याप्त आय- जिसमें पौष्टिक आहार, स्वच्छ पानी, ठीक-ठाक आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य मूलभूत ज़रूरतों के साथ ही आपातकालीन स्थिति और बचत के लिए थोड़ा अतिरिक्त– उसके बाद जब एक बार कृषि लागत कवर हो जाये।’
अपने विनम्र ढंग से मैं लगातार उस आर्थिक नुकसान की ओर ध्यान दिलाता रहा हूं जिसे भारतीय किसान झेल रहे हैं। किसानों को जीवन निर्वाह योग्य आमदन देने में आनाकानी ने कृषि संकट को बढ़ावा दिया है। दशकों से, हालांकि कृषि पैदावार में आशातीत वृद्धि हुई है लेकिन किसान की आय में सतत गिरावट जारी रही है। कई तरह से, यह कहना गलत नहीं होगा कि पैदावार में वृद्धि कृषक परिवारों की असल आमदन में औसत गिरावट की विपरीत समानुपातिक रही है।
साल 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत के 17 राज्यों में, यानी तकरीबन आधे देश में किसानों की औसत आमदन मात्र 20,000 रुपये यानी 241 डॉलर प्रति वर्ष थी। इसका अर्थ है कि एक औसत किसान परिवार 1,700 रुपये यानी 21 डॉलर प्रति माह से कम में गुजर-बसर कर रहा था। यदि आप गांव में रहते हैं तो यह आय एक गाय पालने के लिए भी काफी नहीं है। ऐसी हास्यास्पद आय के साथ, किसान जिस दुख और अभाव की स्थिति में रहते हैं उसकी यकीनी तौर पर कल्पना की जा सकती है।
यह दयनीय आय स्तर आधे देश में रह रहे किसानों के लिए है। परंतु राष्ट्रीय स्तर पर भी तसवीर इतनी ही अपमानजनक है। कृषक परिवारों के लिए सिचुएशनल एसेसमेंट सर्वे 2019 के मुताबिक, किसान परिवार की सभी स्रोतों से औसत मासिक आय मात्र 10218 रुपये यानी 123 डॉलर बनती है। यह मानते हुए कि देश की कुल जनसंख्या का लगभग 50 फीसदी हिस्सा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर खेती में कार्यरत है, किसानों की दुर्दशा के पीछे मौजूद प्राथमिक वजह साफ तौर पर समझे जाने योग्य है।
वैश्विक स्तर पर भी, खेती का परिदृश्य इतना ही निराशाजनक है। यदि कृषि में बड़े पैमाने पर घरेलू समर्थन जो 2019-21 में सार्वजनिक बजट से भुगतान किया गया 500 बिलियन डॉलर - वापस ले लिया गया, तो विकसित देशों में खेती में जो कुछ भी बाकी है, उसका पतन निश्चित है। सरल शब्दों में कहें तो खेती करने वाली आबादी को लगातार वेंटिलेटर पर रखने का निरंतर प्रयास ही किसानों को जीवित रखता है, और किसी तरह से सभी रुकावटों के खिलाफ संघर्ष करने का बंदोबस्त करता है।
दुनिया के सामने आ रहा खेती से यह पलायन एक आर्थिक षड्यंत्र का परिणाम है जिसने जानबूझकर खेती को गरीब बनाए रखा है। अन्य शब्दों में, विश्व स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर भी, यह आर्थिक डिजाइन है जिसने कृषक परिवारों को जीवन निर्वाह योग्य आय से महरूम कर दिया है, जिससे कृषि के पराभव को और बदतर कर दिया है। इस अहम मोड़ पर, फेयर ट्रेड, सॉलिडेरिडाड, रेनफॉरेस्ट एलायंस, ऑक्सफैम और माइटी अर्थ सहित 70 अंतर्राष्ट्रीय सिविल सोसायटी संगठनों (सीएसओ) के एक ग्रुप को यूरोपीय संघ के कॉरपोरेट सस्टेनेबिलिटी ड्यू डिलिजेंस निर्देश (सीएसडीडीडी) में संशोधन की मांग करते हुए देखना बहुत खुशी की बात है जो प्रस्ताव में जीवन निर्वाह आमदन और खरी खरीद प्रथाओं को शामिल करने के लिए है। ‘हम सीएसडीडीडी और कंपनियों की वैश्विक मूल्य शृंखलाओं के मानव अधिकारों और पर्यावरणीय प्रभाव को संबोधित करने के इसके लक्ष्य का स्वागत करते हैं। हालांकि, सकारात्मक बदलावों को लाने के लिए, इसे अधिकार धारकों के हितों और जरूरतों को ध्यान में रखना चाहिए, खास तौर पर उनके जो वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में सबसे कमजोर हैं।’
हालांकि यूरोपियन संसद ने पहले ही जीवन निर्वाह आय का संदर्भ (अनुलग्नक का भाग 1, उपशीर्षक 1, बिंदु 7) शामिल कर लिया है जिसमें कहा गया है कि काम की न्यायसंगत और अनुकूल परिस्थितियों का आनंद लेने का अधिकार, जिसमें सभ्य जिंदगी जीने के योग्य पारिश्रमिक भी शामिल है। सीएसओ की संयुक्त याचिका में ‘स्वरोजगार वाले श्रमिकों के लिए जीवन निर्वाह योग्य मजदूरी और छोटे किसानों के लिए जीवन निर्वाह आय का अधिकार दोनों शामिल हैं’ जिसमें गुजारे योग्य आय का स्पष्ट संदर्भ मांगा गया है ताकि छोटे भूमालिक और अन्य कमजोर वर्ग वास्तव में लाभ उठा सकें।
यह जानते हुए कि छोटे भूमालिक दुनिया की कुल खाद्य आपूर्ति का एक तिहाई हिस्सा पैदा करते हैं, और मूल निवासी एवं स्थानीय समुदाय वनों के करीब 1 बिलियन हेक्टेयर का प्रबंधन करते हैं, उनकी गुजारे लायक आजीविका सुरक्षा यकीनी बनाना महत्वपूर्ण है। ये समुदाय समाज के शंकु के निचले पायदान रहते हैं। गरीबी से पार पाने को इन संवेदनशील समुदायों के लिए निर्वाह योग्य आय के साथ गुजारे योग्य पारिश्रमिक सुनिश्चित बनाना जरूरी है। जबकि जी-20 का प्रयास ग्लोबल वेल्यू शृंखलाओं को मजबूती प्रदान करना है लेकिन इन कंपनियों को आधारभूत कच्चे माल के उत्पादकों के लिए आय सुरक्षा प्रदान करने का स्पष्ट निर्देश शामिल करना कभी किसी नीति निर्देशक का हिस्सा नहीं रहा है।
एक लेख ‘नो सस्टेनेबल वर्ल्ड विदाउट ए लिविंग इनकम फॉर फार्मर्स’ (फेयर फूड, 22 सितंबर 2021) में मैंने बात की थी कि कैसे कुछेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में शक्ति केंद्रीकृत होने का परिणाम अनुचित व्यापार व्यवहार के रूप में सामने है जिसने एशिया अफ्रीका और लेटिन अमेरिका में लाखों छोटे किसानों और भूमिहीन श्रमिकों की आजीविका को प्रभावित किया।
कॉफी का मामला ही लें, जो 200 बिलियन डॉलर की इंडस्ट्री है, प्रतिदिन 3 अरब कप गटके जाते हैं, इसके बावजूद अधिकतर कॉफी बीन उत्पादक रोजाना 2.15 डॉलर में घोर अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीते हैं। केवल कॉफी के लिए ही नहीं, बल्कि यह बात उन सभी कृषि पदार्थों के लिए है जिनका वैश्विक स्तर पर व्यापार होता है। जबकि मूल्य शृंखलाओं का ऊपरी वर्ग जमकर लाभ कमाता है वहीं शृंखला के निम्नतम तल पर मौजूद गरीब उत्पादकों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। ज्यादातर मामलों में वेल्यू चेन का जो हिस्सा कच्चे माल उत्पादकों के पास जाता है वह उत्पादन लागत को भी पूरी नहीं करता है।
भारत में डेयरी को-आपरेटिव्स के अनुभव से सीखा जा सकता है, जिसमें डेयरी किसान को अंतिम उपभोक्ता कीमत का 80 फीसदी प्राप्त होता है। अब यह आकलन करने का समय आ गया है कि ग्लोबल वेल्यू चेन के कारोबार के कितने फीसदी को जीवन निर्वाह आय के रूप में वर्गीकृत किया जाये। यह तथ्य कि उपभोक्ता कीमत का डेयरी किसान को मिलने वाला हिस्सा इतना ज्यादा है फिर भी निजी क्षेत्र समेत भारत में मिल्क प्लांट घाटे में नहीं हैं, स्पष्टतया दर्शाता है कि शेयर को स्पष्ट तौर पर बताना होगा। मेरा सुझाव है कि अंतिम उपभोक्ता कीमत में किसान का हिस्सा 50 फीसदी से कम नहीं होना चाहिये।
ऐतिहासिक रूप से लालची वैश्विक मूल्य शृंखला द़्वारा छोटे भू-मालिकों, किसानों और पशु पालकों को अधिकारपूर्ण देय से वंचित रखा गया। केवल ईयू में ही नहीं बल्कि इस तरह के निर्देश का भारत जैसे देशों और बाकी विकासशील विश्व में भी अनुकरण किया जाना चाहिये। यह उस आय असमानता की खाई को पाटने में मददगार होगा जिससे दुनिया जूझ रही है और नहीं जानती कि इससे बाहर आने की राह क्या है।
लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं।