चुनाव आयोग को सजग सतर्क रहने की जरूरत
के.पी. सिंह
चुनाव प्रचार के दौरान भाषाई स्तर, नेताओं की भंगिमा और राजनीतिक जुमलों के प्रयोग ने मतदाताओं में चिन्ता पैदा की है। इसके साथ ही, भारतीय चुनाव आयोग की कथित चुप्पी ने यह धारणा पैदा की है कि या तो आयोग के पास आवश्यक शक्तियां और संसाधन नहीं हैं, या फिर उसकी स्वतंत्रता को गंभीर खतरा है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत, चुनाव आयोग को संसद, राज्य विधानसभाओं, और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनावों का नियंत्रण और निर्देशन सौंपा गया है। आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए यह प्रावधान किया गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तरह हटाया नहीं जा सकता। राष्ट्रपति और राज्यपाल को चुनाव आयोग के लिए आवश्यक कर्मचारियों की व्यवस्था करने का संवैधानिक उत्तरदायित्व सौंपा गया है। चुनाव प्रक्रिया के दौरान राज्य का पूरा चुनावी ढांचा चुनाव आयोग के नियंत्रण में होता है, और अनुच्छेद 329 के तहत चुनावी मामलों में अदालतों का हस्तक्षेप भी रोक दिया जाता है।
चुनाव आयोग को एक समान अवसर प्रदान करने वाला संवैधानिक निकाय माना गया था, लेकिन भारत में चुनावी प्रक्रिया असमान हो गई है। चुनाव लड़ने की लागत इतनी बढ़ गई है कि अधिकांश लोग इसके बारे में सोच भी नहीं सकते। कई जगहों पर वोट बिकते हैं, और आर्थिक रूप से सक्षम उम्मीदवार इसका लाभ उठाते हैं। काला धन चुनाव परिणामों को प्रभावित करने लगा है, जबकि चुनाव व्यय सीमा लागू करना आयोग के लिए मुश्किल हो गया है। इस स्थिति में भारतीय लोकतंत्र एक ‘सीमित लोकतंत्र’ बनकर रह गया है, जिसमें केवल अमीर या मजबूत राजनीतिक समर्थन वाले उम्मीदवार ही चुनाव जीतने में सक्षम हैं, और सामान्य नागरिक का प्रतिनिधि बनने का सपना अधूरा रह जाता है।
चुनाव प्रचार के दौरान अभद्र भाषा का प्रयोग और चुनाव आयोग का सुसंगत दृष्टिकोण का अभाव समाज में शांति और व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती बन गया है। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भड़काऊ, अपमानजनक और आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल खुले तौर पर किया जा रहा है, और नेताओं की भंगिमाएं व जुमलेबाजी शालीनता की सभी सीमाएं पार कर रही हैं। वर्ष 2019 में उच्चतम न्यायालय ने चुनाव आयोग को नफरत फैलाने वाले भाषणों के मामले में कार्रवाई नहीं करने पर फटकार लगाई थी, लेकिन आयोग ने असमंजस में यह कहा कि उसके पास इस मामले में कार्रवाई की शक्तियां सीमित हैं, जबकि ऐसा नहीं है।
भारतीय न्याय संहिता 2023 में नफरत फैलाने वाले भाषणों को अपराध घोषित किया गया है, और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123(3ए) इसे ‘भ्रष्ट चुनावी आचरण’ के रूप में परिभाषित कर प्रतिबंधित करती है। चुनाव की आदर्श आचार संहिता भी ऐसे आचरण को निषिद्ध करती है। चुनाव आयोग का यह तर्क कि उसके पास घृणात्मक भाषणों को रोकने की पर्याप्त शक्तियां नहीं हैं, सही नहीं है, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने 1995 में मुम्बई विधानसभा चुनाव के दौरान रमेश यशवन्त प्रभु मामले में घृणात्मक भाषण देने के लिए एक उम्मीदवार की उम्मीदवारी रद्द करने का आदेश दिया था। इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय ने 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान नफरत फैलाने वाले भाषणों पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग की शक्तियों को मजबूत करने की सिफारिश करने के लिए विधि आयोग को निर्देशित किया है।
चुनाव के दौरान मतदाताओं को मुफ्त उपहार या आर्थिक लाभ देने और झूठे वादे करना रिश्वतखोरी के समान है, और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 के तहत इसे वर्जित किया गया है। हालांकि, चुनाव आयोग की जड़ता इस मामले में परेशान करने वाली है। वर्ष 2022 में, उच्चतम न्यायालय ने अपने 2013 के फैसले (सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य) पर पुनर्विचार के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया था, यह मामला अभी भी विचाराधीन है। शीर्ष अदालत ने करदाताओं के संगठनों को अपना पक्ष रखने के लिए नोटिस जारी किया है। सरकारी खजाने से मुफ्त सुविधाएं देना सत्तारूढ़ दल के लिए लाभकारी है, जो अन्य उम्मीदवारों के लिए पक्षपाती स्थिति उत्पन्न करता है।
विपक्षी दलों और उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ताओं द्वारा चुनाव आयोग की निष्पक्षता और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की शुचिता पर उठाए गए सवाल चिंताजनक प्रवृत्ति को दर्शाते हैं। वे एलेन मस्क का हवाला देते हुए कहते हैं कि ईवीएम का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इन मशीनों को हैक किए जाने का जोखिम भले ही छोटा हो, लेकिन फिर भी वह अधिक है। ईवीएम के खिलाफ मुख्य आपत्ति ‘ब्लैक बॉक्स सॉफ़्टवेयर’ के प्रयोग पर है, क्योंकि यह सॉफ़्टवेयर इतना गुप्त होता है कि लोग और न्यायिक प्रणालियां इसकी अखंडता का मूल्यांकन नहीं कर सकतीं, जिससे संदेह और हेराफेरी के आरोप लगते हैं।
जर्मन संवैधानिक न्यायालय ने 2009 में ईवीएम के प्रयोग को असंवैधानिक करार दिया था, जबकि भारतीय उच्चतम न्यायालय ने कई अवसरों पर ईवीएम से जुड़े विवादों का निपटारा किया है, जैसे सुब्रमण्यम स्वामी (2023) और चंद्रबाबू नायडू (2019) मामलों में। हालांकि, कुछ लोग यह मानते हैं कि ईवीएम की तकनीकी अखंडता का निष्पक्ष और पारदर्शी ऑडिट अभी बाकी है। उनका तर्क है कि एलेन मस्क की टिप्पणी, ‘कुछ भी हैक किया जा सकता है’, को बिना पर्याप्त परीक्षण के नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी ने 1949 में कहा था कि लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि प्रतिनिधि चयन प्रक्रिया संदेह और पक्षपात से ऊपर हो, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की वैधता और अस्तित्व इसी पर निर्भर करते हैं।
लेखक हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं।