मुख्यसमाचारदेशविदेशखेलबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाब
हरियाणा | गुरुग्रामरोहतककरनाल
रोहतककरनालगुरुग्रामआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकीरायफीचर
Advertisement

जनसहयोग से ही हो काबू पाने के प्रयास

06:41 AM Apr 27, 2024 IST
Advertisement

योगेश कुमार गोयल

प्रतिवर्ष गर्मी की शुरुआत होते ही विभिन्न राज्यों में जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ने लगती हैं। शुष्क मौसम के कारण उत्तराखंड के पहाड़ी अंचलों में भी जंगलों के धधकने का सिलसिला तेज है। जंगल में आग लगने की बढ़ती घटनाओं के साथ ही इन पर नियंत्रण पाना भी मुश्किल होता जा रहा है। वन विभाग के सूत्रों के मुताबिक, उत्तराखंड में इस फायर सीजन में जंगलों में आग की करीब सौ घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 100 हेक्टेयर से भी ज्यादा वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है।
तापमान में बढ़ोतरी के चलते उत्तराखंड में गढ़वाल, कुमाऊं, अल्मोड़ा, कर्णप्रयाग, चमोली, चंपावत, नैनीताल, पौड़ी, टिहरी, रुद्रप्रयाग सहित कई जनपदों के जंगल धधक रहे हैं। कई जगहों पर जंगलों में दावानल भड़कने के दो-तीन दिन बाद तक भी वन विभाग मौके पर पहुंचने में नाकाम रहा और जंगलों से उठती आग की लपटें सब कुछ राख करती चली गईं। विशेषज्ञों के मुताबिक जंगलों में दावानल से बड़े पैमाने पर वन संपदा तो नष्ट होती ही है, पर्यावरणीय क्षति के साथ-साथ लोगों को जलवायु परिवर्तन का खमियाजा भी भुगतना पड़ता है।
गर्मियों में जंगलों में आग तेजी से फैलती है। जंगलों का पूरी तरह सूखा होना आग लगने के खतरे को बढ़ा देता है। कई बार जंगलों की आग जब आसपास के गांवों तक पहुंच जाती है तो स्थिति काफी भयावह हो जाती है। दो साल पहले उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग में अल्मोड़ा में छह गौशालाएं, लकड़ियों के टाल सहित कई घर जलकर राख हो गए थे और वहां हेलीकॉप्टरों की मदद से बड़ी मुश्किल से आग बुझाई जा सकी थी।
जंगलों में आग के कारण वनों के पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को भारी नुकसान होता है। प्राणी सर्वेक्षण विभाग का मानना है कि उत्तराखंड के जंगलों में आग के कारण जीव-जंतुओं की साढ़े चार हजार से ज्यादा प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। वनों में आग से पर्यावरण के साथ-साथ वन सम्पदा का जो नुकसान होता है, उसका खमियाजा लंबे समय तक भुगतना पड़ता है और ऐसा नुकसान साल-दर-साल बढ़ता जाता है। पिछले चार दशकों में भारत में पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के खत्म हो जाने के अलावा पशु-पक्षियों की संख्या भी घटकर एक तिहाई रह गई है और इसके विभिन्न कारणों में से एक कारण जंगलों की आग रही है। जंगलों में आग के कारण वातावरण में जितनी भारी मात्रा में कार्बन पहुंचता है, वह कहीं ज्यादा गंभीर खतरा है।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2017 से 2019 के बीच जंगलों में आग लगने की घटनाएं तीन गुना तक बढ़ गईं। साल 2016 में देशभर के जंगलों में आग लगने की 37 हजार से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गई थी, जो 2018 में बढ़कर एक लाख से ऊपर निकल गईं। भारतीय वन सर्वेक्षण ने वर्ष 2004 में नासा के उपग्रह की मदद से राज्य सरकारों को जंगल में आग की घटनाओं की चेतावनी देना शुरू किया गया था। वर्ष 2017 में सेंसर तकनीक की मदद से रात में भी ऐसी घटनाओं की निगरानी शुरू की गई लेकिन तमाम तकनीकी मदद के बावजूद जंगलों में हर साल बड़े स्तर पर लगती भयानक आग जब सब कुछ निगलने पर आमादा दिखाई पड़ती है और वन विभाग बेबस नजर आता है, तो चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। चिंता का विषय है कि जंगलों में आग की घटनाओं को लेकर सरकारों और प्रशासन के भीतर संजीदगी का अभाव दिखता है। एक दशक में हम वनों की आग से 22 हजार हेक्टेयर से भी ज्यादा जंगल खो चुके हैं। वन सर्वेक्षण संस्था की रिपोर्ट के अनुसार देशभर में 2004 से 2017 के बीच वनों में आग की 3.4 लाख घटनाएं हुई थी।
जंगलों में आग कई बार प्राकृतिक तरीके से नहीं लगती बल्कि पशु तस्कर भी लगा देते हैं। मध्य प्रदेश के जंगलों में लोग महुआ निकालने के लिए झाड़ियों में आग लगाते हैं। वहीं वनों में प्राकृतिक तरीके से आग लगने के प्रमुख कारण मौसम में बदलाव, सूखा व भूमि कटाव हैं। विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में चीड़ के वृक्ष बहुतायत में होते हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ इसे वनों का कुप्रबंधन ही मानते हैं कि देश का करीब 17 फीसदी वन क्षेत्र चीड़ से ही भरा पड़ा है। चीड़ के वृक्षों का बड़ा नुकसान है कि एक तो ये बहुत जल्दी आग पकड़ लेते हैं, साथ ही ये अपने क्षेत्र में चौड़ी पत्तियों वाले अन्य वृक्षों को पनपने नहीं देते। चूंकि चीड़ के वनों में नमी नहीं होती, इसलिए जरा-सी चिंगारी भी ऐसे वनों को राख कर देती है। कभी चीड़ के सूखे पत्तों को पर्वतीय क्षेत्रों के लोग पशुओं के बिछौने के रूप में इस्तेमाल किया करते थे किन्तु रोजगार की तलाश में पहाड़ों से पलायन के चलते लोगों को अब इन पत्तियों की जरूरत ही नहीं पड़ती और जंगलों में इन सूखी पत्तियों का ढेर इकट्ठा होता रहता है, जो थोड़ी गर्मी बढ़ते ही मामूली चिंगारी से ही सुलग उठते हैं व देखते ही देखते पूरा जंगल आग के हवाले हो जाता है। जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं पर काबू पाने में विफलता का बड़ा कारण यह भी कि वन क्षेत्रों में वनवासी अब वन संरक्षण के प्रति उदासीन हो चले हैं। वजह काफी हद तक नई वन नीतियां भी हैं। जरूरी है कि वनों के आसपास रहने वालों और उनके गांवों तक जन-जागरूकता मुहिम चलाकर वनों से उनका रिश्ता कायम करने के प्रयास किए जाएं ताकि वे वनों को अपने साथी समझें और उनके संरक्षण के लिए साथ खड़े नजर आएं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement