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बिहार में तीसरी धुरी बनने की कवायद

06:37 AM Oct 05, 2024 IST
बिहार में तीसरी धुरी बनने की कवायद
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वेद विलास उनियाल

बिहार की राजनीति में एक और पार्टी का उदय हुआ है। चुनावी रणनीति और चक्रव्यूह रचने वाले प्रशांत किशोर अब स्वयं अपनी पार्टी बनाकर मैदान में उतरे हैं। सुराज नाम की यह पार्टी एकाएक राजनीति के समर में नहीं उतरी है। प्रशांत किशोर ने इसके लिए लंबी तैयारी की है। पदयात्रा करके बिहार के ओर-छोर को नापा है। बिहार की सियासत के तमाम समीकरणों को अपने तराजू पर तोला है। बहरहाल, इतना तय है कि यह पार्टी अपने कुछ अलग तेवरों के साथ होगी और इसने बिहार की राजनीति में प्रभाव रखने वाली तमाम पार्टियों को इसके बारे में सोचने को विवश किया है।
अभी यह भी साफ नहीं है कि यह पार्टी किसके जनाधार पर सेंध लगा सकती है। कांग्रेस आरजेडी को अपने मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट रखने की चिंता है। बीजेपी पिछड़े और सवर्ण मतदाताओं को बिखरने नहीं देना चाहती। सत्ता में बीजेपी के साथ सहभागिता करने वाली जेडीयू को पिछड़ों, अति पिछड़ों पर अपने प्रभाव को कायम रखने की जद्दोजहद है। भारत के सियासी दलों के लिए चुनावी रणनीति तैयार करने वाले प्रशांत किशोर जब अपनी पार्टी लेकर आए हैं, तब कई तरह की कसौटियां उनके सामने भी हैं।
चुनावी रणनीति बनाना और चुनाव के समर में उतरना दो अलग-अलग पहलू हैं। चुनाव के पैंतरों को समझकर राजनीति में सब कुछ हासिल होता तो देश की सियासत को बखूबी समझने वाले राजनीतिक समीक्षक सियासत की पारियां भी खेल रहे होते। लेकिन सियासत का जमीनी संघर्ष बहुत अलग होता है। इसलिए कई सामाजिक आंदोलन करने वाले भी सियासत से जूझते रहने और सफल आंदोलनों के बाद भी खुद सियासत का हिस्सा नहीं बन पाते। साथ ही यह भी समझना होगा कि प्रशांत किशोर ने राजनीति की शुरुआत के लिए उस बिहार को चुना है जहां सियासत हमेशा उलझी हुई रही है। जातीय और क्षेत्र के उलझे समीकरण रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि केंद्र या राज्य में स्थापित हुई सियासी पार्टियों को कोई नई पार्टी चुनौती नहीं दे सकती। तेलुगू स्वाभिमान के नारे पर 1982 में एनटी रामाराव ने तेलुगूदेशम की स्थापना की थी। इसने आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के वर्चस्व को समाप्त किया था। एनटी रामाराव की राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। लेकिन कुछ ही समय में उनकी स्थापित की हुई पार्टी ने सत्ता हासिल की। आज भी आंध्र प्रदेश में तेलुगूदेशम का परचम लहरा रहा है। वर्ष 2012 में अरविंद केजरीवाल ने जिस आम आदमी पार्टी को स्थापित किया वह एक साल में ही सत्ता में आ गई थी। इस समय भी दिल्ली व पंजाब में आप की सरकार है। लेकिन इन पार्टियों की अगर बिहार में सुराज पार्टी से तुलना करें तो कुछ परिस्थितियों में अंतर दिखता है। निस्संदेह दिल्ली में आप की सफलता में अन्ना हजारे के आंदोलन का प्रताप था। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन का ज्वार ऐसे उठा कि केजरीवाल और उनके साथियों को सियासत का एक प्लेटफार्म मिल गया। ऐसे में अगर बिहार की ओर देखें तो प्रशांत किशोर के सामने पार्टी को सामने रखकर जनता को झकझोरने वाला नया मुद्दा या नारा नहीं दिखता। प्रशांत किशोर सियासी बिसात बिछाने के समीकरणों को तैयार करने के मास्टर हो सकते हैं लेकिन बिहार मेंे बड़ी उथल-पुथल के लिए उन्हें जनता को झकझोरने के लिए किसी बड़े नारे की जरूरत होगी।
बिहार की सियासी पार्टियां और राजनीतिक सूरमा इस बात का आकलन कर रहे हैं कि सुराज उन्हें कहां नुकसान पहुंचा सकती है और कहां सुराज की मौजूदगी उनके हित में हो सकती है। वहीं सुराज की कोशिश यही होगी कि वह बिहार में परिणामों से नई हलचल मचा दे। इसके लिए प्रशांत किशोर कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे।
प्रशांत किशोर की पार्टी निश्चित तौर पर विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। वह बिहार की सियासत में एक धुरी बनेगी, इसमें संदेह नहीं है। प्रशांत किशोर अपनी पदयात्रा में मिले जनसमर्थन से उत्साह में हैं। बिहार की इस पार्टी को हल्के में लेने की भूल कोई भी दल नहीं कर रहा। खासकर तब जबकि बिहार में महज तीन-चार प्रतिशत वोट इधर-उधर होने से खेल संभव हो जाता है। बिहार के राजनीतिक समर में सुराज के आने से बड़े दलों को अपने समीकरणों को खंगालना होगा। बड़े सियासी दलों को अच्छी तरह मालूम है कि प्रशांत किशोर पेशेवर हुनर से सियासत में उतरे हैं। कहीं न कहीं प्रशांत बिहार के जनमानस को यह संदेश देने की कोशिश करेंगे कि वह राज्य की राजनीति के परंपरागत ढर्रे को बदलने का काम करेंगे। दिल्ली में आप ने यही फार्मूला अपनाया था। प्रशांत किशोर की पूरी कोशिश होगी कि उनकी पार्टी सियासत में एक अभिनव प्रयोग के साथ सामने आयेगी। हालांकि, उन्हें चुनाव से पहले बताना होगा कि उनका नया प्रयोग क्या है। उनका फोकस खासकर बिहार की युवा पीढ़ी को अपने प्रभाव में लाने का होगा। इसके लिए उन्हें बताना होगा कि उनकी पार्टी की क्षमता क्या है। बिहार के मतदाता की राजनीतिक सूझबूझ का जवाब नहीं है। इसलिए वह केवल नारे की भावुकता में नहीं आएगा बल्कि सुराज से उनकी नीति-रणनीति जानना चाहेगा। कहीं न कहीं बिहार में सियासी ढर्रे से बदलाव की एक छटपटाहट तो दिखती है। सुराज पर अगर फोकस हो रहा है तो उसकी बड़ी वजह यह है कि प्रशांत किशोर ने गुजरात, दिल्ली, आंध्र व तमिलनाडु जैसे राज्यों में अपना हुनर दिखाया है। प्रशांत सियासत के अभिनव प्रयोग की बात जरूर कर रहे हैं लेकिन वह जानते हैं कि बिहार की सियासत में जातीय, क्षेत्रीय समीकरणों को साधे बगैर चुनावी सफलता संभव नहीं। बिहार की राजनीति में तीसरी धुरी बनने की चाह रखने वाले प्रशांत किशोर ने पार्टी की घोषणा के लिए नवरात्र के पहले दिन की प्रतीक्षा नहीं की। सीधा संकेत है कि वह धुर हिंदुत्ववादी राजनीतिक पार्टी से अपनी छवि अलग दिखाना चाहते हैं।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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